Hindi Essay on “Nari aur Pashchim Sabhyata ”, “नारी और पाश्चात्य सभ्यता”, Hindi Nibandh, Anuched for Class 10, Class 12 ,B.A Students and Competitive Examinations.

नारी और पाश्चात्य सभ्यता

Nari aur Pashchim Sabhyata 

 

भूमिका- अनादिकाल से नारी पुरुष की सहचरी बनकर उसके सु:ख-दुःख को बांटती आई हैं। इनसे ही सृष्टि का विकास हुआ है। नारी की स्थिति उसके पति अथवा पुरुष के बिना सारहीन है। भारतीय और पाश्चात्य सभ्यता में नारी के जीवन के मूल्यों में भिन्नता रही है। पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव से भारतीय नारी प्रभावित हो चुकी है। यह बड़े विचार करने वाली बात है कि भारतीय नारी को पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव से किस सीमा तक प्रभावित होना चाहिए।

आधुनिक नारी का कर्त्तव्य और क्षेत्र- नारी और पुरुष के अधिकार क्षेत्र में भिन्नता है। अपनी शक्ति के अनुसार नारी जननी, बहन तथा पत्नी की भूमिका निभाती आ रही है। जीवन संघर्ष में उसने भी सक्रिय भूमिका निभाई है फिर भी उसेजीवन रूपी रथ को चलाने के लिए पुरुष-प्रधान समाज होने के कारण नारी को समाज में वह महत्त्व नहीं मिला है। नारी को घर की चारदिवारी में रखा जाता था। नारी में दया, ममता और त्याग जैसे गुण होते हैं जिससे वह समाज को तथा व्यक्ति को विशेष दिशा दे सकती है। घर के काम-काज के इलावा उसे सामाजिक कार्यों में भी सहयोग देना चाहिए।

प्राचीन काल में नारी का स्थान- प्राचीन काल में नारी की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मानी जाती थी और उसका मूल्यवान योगदान होता था। लेकिन पुरुष प्रधान समाज में धीरे-धीरे नारी को केवल पुरुष की दासी के रूप में ही स्वीकार किया गया। उसका आदर्श केवल पति की सेवा तथा गृहस्थी की देखभाल करना ही रह गया लोग उस काल में सरल और सादा जीवन व्यतीत करते थे। नारी अपने धर्म को निभाती थी और संतोष से गृहस्थ जीवन व्यतीत करती थी। उसका जीवन एक आदर्श जीवन होता था। कर्त्तव्यपरायण नारी का समाज में बड़ा आदर था।

पाश्चात्य सभ्यता और आधुनिक शिक्षित नारी- पाश्चात्य सभ्यता भोगवादी सभ्यता है। उसका दृष्टिकोण केवल उन क्षणों तक जाता है जिससे मनुष्य उपभोग कर सुःख प्राप्त कर सकता है। विज्ञान के माध्यम से उन्होंने विश्व को सुःखी बनाने की कोशिश नहीं ही अपितु उसे कमजोर बनाकर उसे भयभीत कर अपने अधीनस्थ बनाने का प्रयास किया। परिणामस्वरूप जीवन में प्यार, त्याग, आदर्श, सहयोग शब्दों से, उसके व्यावहारिक पक्ष से वह अपरिचित रह गया। आज मानव मन अशान्त और असन्तुष्ट रहता है क्योंकि जो कुछ पास है उससे वह सन्तुष्ट नहीं और अधिक पाने की चेष्टा करता है। वे व्यक्तिगत इच्छा को महत्त्व देते है समाज उनकी दृष्टि में कुछ नहीं। वे कहते हैं कि जब तक जीओ, सुख से जीओ, खाओ पीओ और आन्नद करो। विश्व-कल्याण और समाज कल्याण की भावना उनके दिल में नहीं होती। इस सभ्यता में स्त्री और पुरुष का मौजी सम्बन्ध है। उनकी दृष्टि में विवाह एक समझौता है जब तक चला, ठीक है, नहीं तो टूट गया।

वर्तमान युग में नारी की स्थिति- पाश्चात्य संस्कृति का वर्तमान युग की नारी पर भी प्रभाव पड़ रहा है। आज नारी अपनी आप को स्वतन्त्र रखना चाहती है। इसका कारण यह है कि पुरुष के अत्याचारों से नारी इतनी पीडित हो चकी है कि उसके पास सिवाय इसके और कोई मार्ग ही न रहा। पुरुष को अपना देवता तथा सर्वस्व न समझकर अपना साथी समझे लेकिन ऐसा साथी नहीं जिसे जब चाहा छोड़ दिया। इससे हमारी भारतीय संस्कृति का मूल तत्व पतिव्रत धर्म को ठेस पहुँचेगी। गृहस्थी खराब होगी। सन्तान का भविष्य अन्धकारमय हो जाएगा। भारतीय नारी को पाश्चात्य सभ्यता की इस देन को केवल उसी सीमा तक ग्रहण करना चाहिए जिस सीमा तक उसकी गृहस्थी नष्टभ्रष्ट न हो। पाश्चात्य देशों की सामाजिक स्थिति तथा वातावरण ऐसा नहीं जो भारत के तथा भारतीय संस्कृति के अनुकूल बैठे। भारतीय संस्कृति आर्दशवाद में विश्वास रखती है। इसी आदर्शवाद को ध्यान में रखते हुए भारतीय नारी के लिए फैशन सीमित होना चाहिए। शिक्षा के क्षेत्र में भी नारी पर पाश्चात्य प्रभाव है। यह ठीक कि नारी जितनी शिक्षित होगी समाज का उतना ही कल्याण होगा। बड़े दुःख से कहना पड़ता है कि नारी को ऐसी शिक्षा दी जा रही है जो नारियों के जीवन में व्यर्थ सिद्ध होती है। नारी को शिक्षा उसके क्षेत्र के अनुकूल ही दी जाती चाहिए। नारी को अपनी गृहस्ती अच्छी तरह संभालने की शिक्षा दी जानी चाहिए। नारी को अपनी गृहस्थी अच्छी तरह संभालने की शिक्षा दी जानी चाहिए। फैशन के नाम पर और सभ्यता के नाम पर शरीर का प्रदर्शन, कलबों में शराब पीना, प्रेम के नाम पर तलाक, शरीर के सौन्दर्य की रक्षा के बहाने अपने ही बच्चों को दूध न पिलाना जैसे तथ्य उसे निश्चय ही विनाशकारी मार्ग की ओर ले जाते हैं।

उपसंहार- पाश्चात्य प्रभाव निन्दनीय नहीं है। अभर्यादित प्रदर्शन की भावना नहीं होनी चाहिए। आवश्यकता केवल इस बात की है कि नारी उन प्रभावों को अपनी स्थिति के अनुसार ढाल ले। भारतीय नारी को अपनी संस्कृति और अपने परिवेश के अनुसार ही स्वयं को बदलना चाहिए। पाश्चात्य सभ्यता में स्वतन्त्रता का जो अनुचित प्रयोग नारी करती है, वह भारतीय संस्कृति की आत्मा के प्रतिकूल है।

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