Hindi Essay on “Badhti Sabhyata – Sikudte Van”, “बढ़ती सभ्यता : सिकुड़ते वन ”, for Class 10, Class 12 ,B.A Students and Competitive Examinations.

बढ़ती सभ्यता : सिकुड़ते वन

Badhti Sabhyata – Sikudte Van

आज हमारी सभ्यता दिन दूनी रात चौगुनी गति से बढ़ रही है। सभ्यता का प्रसार आज इतना हो रहा है कि हम आज प्रकृति देवी का अनादर करने में तनिक भी संकोच नहीं कर रहे हैं। यही कारण है कि आज हमारी सभ्यता के सामने प्रकृति देवी उपेक्षित हो रही है। वनों का धड़ाधड़ा कटते जाना और उससे धरती का नंगापन दिखाई देना, इस तथ्य को प्रमाणित करता है कि हमने सभ्यता के नाम पर सबकी बली या तिलांजली देनी स्वीकार कर ली है।

बढती हुई सभ्यता के और विस्तार के लिए वनों का सिकुड़ते जाना अथवा उन्हें साफ करके उनके स्थान पर आधुनिक सभ्यता का चिन्ह स्थापित किए जाने से सभ्यताएँ तो बढ़ती जा रही हैं और हमारे वन विनष्ट होते जा रहे हैं। हमारी प्रकृति के मुख से हरीतिमा का हट जाना हमारी उटण्डता का परिचायक है। जिस देवी के द्वारा हमारा लालन-पालन हुआ, उसी को हम आज उदास या दुःखी करने पर तले हुए हैं। क्या यह हमारे लिए कोई शोभा या सम्मान का विषय हो सकता?

अब हम यह विचार कर रहे हैं कि सभ्यता की धमाचौकड़ी के कारण किस तरह हम दु:खी और विवश हो रहे हैं। वनों की कमी के कारण हमें कागज-निमाण। के लिए बाँस और घास सहित अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो पा रही है। इससे हम कागज-निर्माण के क्षेत्र में पिछड़ते जा रहे हैं और विवश हो करके हमें कागज का आयात विदेशों से करना पड़ता है। लाख-चीड़ आदि उपयोगी पदार्थ भी वनों की कमी और अभाव के कारण हमें अब मुश्किल से प्राप्त हो रहे हैं। इससे हमारे खिलौने के उद्योगों पर इसका बहुत बुरा प्रभाव पड़ रहा है। सिकुड़ते वनों के कारण हमें विभिन्न प्रकार की इमारती लकड़ियाँ प्राप्त नहीं हो पा रही हैं। परिणामस्वरूप हम इमारती उद्योग से दूर होते जा रहे हैं। वनों से मिलने वाली विभिन्न प्रकार की जड़ी-बूटियों भी अब हमें प्राप्त नहीं हो रही हैं। इससे दवाईयों की अधिक-से-अधिक तैयारी हम नहीं कर पा रहे हैं। वनों के अभाव के कारण हमारे । यहाँ वर्षा का औसत प्रतिवर्ष कम होता जा रहा है या इसकी कभी अधिकता अथवा कभी कम होती है। इससे कृषि, स्वास्थ्य आदि की गड़बड़ी के फलस्वरूप हमारा । जीवन कष्टकर होता जा रहा है। वनों की कमी के कारण भूमि का कटाव रुक नहीं पाता है। इससे अधिक-से-अधिक मिट्टी कट-कटकर नदी और नालों से बहती हुई जमा होती रहती है। इसलिए नदियों की पेंदी भरती जा रही है। इससे थोड़ी सी वर्षा होने पर अचानक बाढ़ का भयानक रूप दिखलाई पड़ता हुआ हमारे जीवन को अस्त-व्यस्त और त्रस्त कर देता है।

सिकुड़ते वनों के कारण हमें शुद्ध वायु, जल और धरातल अब मुश्किल से प्राप्त होते जा रहे हैं, जो हमारे स्वास्थ्य और जीवन के लिए कष्टदायक और अवरोध मात्र बनकर सिद्ध हो चुके हैं। वनों के अभाव के कारण विभिन्न प्रकार के जंगली जीव-जन्तुओं की भारी कमी हो रही है। इससे प्रकृति का सहज संतुलन बिगड़ चुका है। सिकुड़ते वनों के कारणों ही हम प्रकृति देवी के स्वच्छन्द और उन्मुक्त स्वरूप को न देख पाने के कारण कृत्रिमता के अंचल से ढकते जा रहे हैं।

आज हम देख रहे हैं कि हममें, हमारे समाज और हमारे राष्ट्र में आधुनिक सभ्यता की पताका तो फहर रही है, लेकिन दूसरी ओर अशिष्टता निरंकुशता, परम्पराओं तथा मान्यताओं का विद्रुप और विकर्षण स्वरूप सिर उठा रहा है, जो हमारे जीवन के परम आधार और हमारी जननी प्रकृति के लहराते बाग-बगीचे, बन रूपी ऑचल को बार-बार खिंचता हुआ हमारी जीवन रेखा को मिटा देना चाहता है। अतएव इसके लिए सावधान होकर हमें वनों की रक्षा करके ही अपनी इस आधुनिक सभ्यता को आगे बढ़ाना चाहिए।

Leave a Reply