जीवन में शिक्षा का महत्त्व
Jivan me Sikhsha ka Mahatva
वेद व्यास जी ने ब्रह्म सूत्र में कहा है कि “शास्त्रदृष्ट्या तूपदेशः’ अर्थात् शास्त्र दृष्टि से शिक्षा देनी चाहिए न कि लोक दृष्टि से। हमारे देश में खान-पान, आचार, विचार वेश-भूषा आदि में स्वच्छन्ता पर अंकुश लगाना ही शिक्षित का मूल उद्देश्य था। किन्तु आप ने देखा पिछले दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय में लड़कियों की अशोभनीय पोशाक पर पाबन्दी लगाई गई तो छात्राएँ विरोध प्रदर्शन करती हुई सड़कों पर उतर आईं। उन्होंने इस आदेश को नारी स्वतन्त्रता का एवं व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का हनन करने वाला बताया। सरकार को नारी शक्ति के आगे घुटने टेकने पड़े। आज के भौतिकवादी युग में शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य भौतिक सुख पाना रह गया है। शिक्षा केवल नौकरी पाने के लिए ही प्राप्त करना एक मात्र उद्देश्य रह गया है। कौन नहीं जानता कि सुशिक्षित मनुष्य सर्वत्र आदरणीय होता है। शिक्षा मनुष्य का बौद्धिक विकास करती है किन्तु भारतीय शिक्षा के बिना भारतीयता धूमिल है। भारतीय शिक्षा से ही भारतीय संस्कृति की सुरक्षा सम्भव है। शिक्षा के अभाव में स्वधर्म-कर्म का ज्ञान ही अशक्य है, जिसके बिना आज के भारतीय शिक्षा सूत्र परिधनादि से विहीन होते जा रहे हैं। पाश्चात्य सभ्यता वश भारतीयता का स्वरूप तिरोहित हो रहा है। प्राचीन शिक्षा का महत्त्व था कि व्यक्ति के जीवन में। आध्यात्मिकता एवं व्यावहारिकता की प्रधानता रहे। यह शिक्षा नौकरी के लिए नहीं, जीवन को सही दिशा-प्रदान करने के लिए थी। किन्तु खेद से कहना पड़ता है कि हमारी वर्तमान। शिक्षा प्रणाली एकांगी है। उसमें व्यावहारिकता का अभाव है। श्रम के प्रतिनिष्ठा नहीं है। शिक्षा प्राप्त करके अपना भला करने की बात बहुत कम सोची जाती थी बल्कि मानव मात्र का कल्याण सोचा जाता था। भारत को शिक्षा के क्षेत्र में संसार भर का गुरु होने का गौरव प्राप्त था वह कहाँ लुप्त हो गया। आज हम उच्च शिक्षा प्राप्त करने विदेशों में जाते हैं। कहाँ गए हमारे तक्षशिला और नालन्दा जैसे विश्वविद्यालय जहाँ दुनिया भर से विद्वान् उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए आते थे। जब तक हम जीवन में शिक्षा के महत्त्व को भारतीयता के रंग में नहीं रंगे गे हमारा कल्याण नहीं होगा। भारतीय बालक-बालिकाएँ ही भविष्य की निधि हैं। उनमें बाल्यकाल से ही भारतीय संस्कारों के बीजवपन करने चाहिएं, तभी भारतीयों का उज्ज्वल स्वरूप उभर कर सामने आएगा। अन्यथा इक्कीसवीं सदी में भारतीय नाम मात्र रह जाएंगे। उनका स्वरूप ही परिवर्तित हो जाएगा तथा भारतीय संस्कृति इतिहास मात्र रह जाएगी। इसीलिए भारतीय भाषाओं संस्कृत-हिंदी की शिक्षा प्रत्येक गाँव प्रत्येक शहर में पाठशालाओं से लेकर विश्वविद्यालयों तक दी जानी चाहिए। यही शिक्षा का मूल उद्देश्य एवं महत्त्व है।
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