माता शीतला का वाहन गर्दभ क्यों? Mata Shitla ka Vahan Gandarbh kyo hai?

माता शीतला का वाहन गर्दभ क्यों?

Mata Shitla ka Vahan Gandarbh kyo hai?

 

माता का स्वरूप

वन्देऽहं शीतला देवीं रासभस्थां दिगम्बराम्।

मार्जनीकलशोपेतां सूर्पालंकृतमस्तकाम्॥ (धन्वंतरिकृत शीतला स्तोत्र)

अर्थात् ‘गधे पर बैठी, सर्वथा नग्न, झाडू और जल का घट उठाये, सूप-छाज को सिर पर भूषण की तरह सजाये शीतला देवी की मैं वन्दना करता हूँ।’

उपर्युक्त श्लोक में चामुण्डा का जो चित्र खींचा गया है। रोगी यदि इसके प्रत्येक शब्द पर ध्यान दे, तो वह रोगोन्मुक्त हो सकता है और यदि सर्वसाधारण हर समय इसका ध्यान करे, तो घर में उक्त रोग का संक्रमण ही न होगा। ‘शीतला’ नाम का तात्पर्य है कि उक्त रोग के आक्रमण के समय रोगी दाह से अत्यन्त पीड़ित रहता है। उसे शीतलता की बहुत आवश्यकता रहती है, परन्तु वस्तुतः इस रोग की अधिष्ठात्री देवी ही स्वयं शीतला हैं, अत: बाह्य शीतल उपचार करने से कुछ भी लाभ न होगा।

Pauranik-Kahta

शीतला गर्दभ पर सवार हैं। संसार में दो प्रकार के प्राणी हैं-एक सौरशक्ति-प्रधान जीव, जो बहुत चंचल, चुलबुले, तत्काल भिड़ उठने वाले और असहनशील होते हैं। चान्द्रशक्ति-प्रधान प्राणी इससे सर्वथा विपरीत, लद्दड, स्थैर्य सम्पन्न एवं सहनशील होते हैं। गाय, घोडा, मग आदि प्रथम श्रेणी के जीव हैं और गधा, भैंस, ऊँट आदि दूसरी श्रेणी के। घोड़ा कोड़े पर हाथ डालने मात्र से ही कान खड़े करता है और गधा दिन भर डण्डे खाने पर भी बेखबर। सचमुच यदि गधे की भाँति अन्य किसी भी जीव को दिन भर इतने डण्डे पड़ें, तो वह अवश्य ही चन्द दिन में यमराज का अतिथि बन जाये। परन्तु प्रकति ने चान्द्रशक्ति के आधिक्य से गधे का शरीर ही इस प्रकार का बनाया है कि उसके रुधिर में डण्डों की मार से उत्तेजना नहीं होती। यह प्रकृति माता का उस पर परम अनुग्रह ही है।

चान्द्रशक्ति-प्रधान जीवों में प्रमुख गर्दभ ही माता शीतला का वाहन हो सकता है। इसका सीधा तात्पर्य यह है कि जैसे अधिक से अधिक परिश्रम करने पर थका-माँदा भी गधा ‘सश्रान्तोऽपि बहेद भारम’ के अनुसार धैर्यपूर्वक बोझा ढोते ही चला जाता है, इसी प्रकार चामुण्डा के आक्रमण के समय रोग के अधिक से अधिक प्रहार सहन करता हुआ भी रोगी कभी अधीर न हो। इसके अतिरिक्त शीतला रोग में गर्दभी का दूध बहुत हितकर होता है तथा गधे लोटने के स्थान की मिट्टी और गधों के सम्पर्क का वातावरण उपयुक्त समझा जाता है। संसार में यह कहावत बहुत प्रसिद्ध है कि ‘ऊँट वाले को कभी पेट का रोग नहीं होता और कुम्हार को चामुण्डा का भय नहीं होता।’ तपेदिक में भी गधी का दूध हितकर समझा जाता है।

अन्यत्र ‘चामुण्डा शववाहना’ के अनुसार चामुण्डा का वाहन ‘शव’ भी कहा गया है। इसका तात्पर्य है कि चामुण्डा से आक्रान्त रोगी को शव की भाँति निश्चेष्ट बन कर मर्यादा (मियाद) की प्रतीक्षा करनी चाहिए।

वैज्ञानिक विवेचन

चामुण्डा दिगम्बरा है, अर्थात्- सर्वथा नग्न अवस्था में है। अत: चामुण्डाक्रान्त रोगी को भी प्रायः नग्न ही अवस्था में भस्म के बिस्तर पर लेटने के लिए विवश होना पड़ता है। क्योंकि सर्वांगव्याप्त विस्फोट से निकलने वाला पीप, रुधिर यदि वस्त्र से चिपक जाये, तो फिर वह घावों से तत्काल उतरता नहीं और बलात् उतारने पर घाव और अधिक गहरे हो जाते हैं, फिर आय भर नहीं भरते। चामुण्डा के प्रसाद से विकृत-मुख व्यक्तियों के चेहरे पर वे दाग खूब देखे जा सकते हैं। अतः सब दृष्टियों से सस्ता सुगम और हितप्रद यही उपचार है कि गोमय के कण्डों की नरम राख के बिस्तर पर चामुण्डा के रोगी को सर्वथा नग्न रख दिया जाये।

चामुण्डा हाथ में झाडू थामे है। अतः झाडू घर की स्वच्छता का प्रतीक है। इसलिए स्वच्छता का विशेष ध्यान दिलाने के लिए शीतला माता के एक हाथ में झाड़ू विद्यमान रहता है। कलश जहाँ धोने व प्रक्षालन करने का प्रतीक है, वहाँ बीमार के निकट जलपूर्ण घट खुले मुँह चौबीसों घण्टे रखने की प्रचलित प्रथा का भी निर्देश करता है। आज के वैज्ञानिक यह उद्घोषणा कर चुके हैं कि रोग से परिलुप्त वातावरण को विशुद्ध बनाने के लिए पानी का खुला टब घर में रखना बहुत लाभप्रद है, क्योंकि रोग की मूल ‘कार्बन गैस’ उसमें समा जाती है। इसलिए शीतला को ‘कलशोपेता’ कहा गया है।

डाक्टर प्रायः जल के खुले टब को बीमार के निकट रखने का तो समर्थन करते हैं, परन्तु यह परामर्श नहीं देते हैं कि पुनः उस पानी का क्या किया जाये? परन्तु हमारे महर्षियों ने इसकी पूरी-पूरी व्यवस्था की है। यथा-रोगी के सिरहाने रखा हुआ जल प्रातः सायं उठाकर गाँव से बाहर उस एकान्त स्थान में, जो केवल शीतला के लिए ही गाँव की ओर से नियत है, उड़ेल दिया जाये। जिससे रोग के कीटाणु दूसरे लोगों से संपृक्त होकर उन पर संक्रान्त न हो पायें। इस तरह प्रातः सायं नियत समय पर जलपूर्ण पात्र ले जाते देखकर सभी गाँव वाले यह जान सकें कि अमुक घर में चामुण्डा का आक्रमण हो रहा है या हुआ है। अतः सबको उनके सम्पर्क से बचना चाहिए। प्रायः ऐसे रोगी के निकट जाने की भी सर्वसाधारण को आज्ञा नहीं होती. बल्कि ऊँचे स्वर से बोलने तक की मनाही होती है, जिससे बीमार को पूरा विश्राम मिले और अन्य लोग सम्पर्क से बचें।

चामुण्डा के श्लोक में अन्तिम विशेषण है सूर्यालंकृतमस्तकाम् अर्थात् उसने अन्न को विशुद्ध बनाने के प्रधान साधक सूप-छाज को अपने सिर का भूषण बना रखा है। कहना न होगा कि जिस घर में भोजन सामग्री की विशुद्धता का विशेष ध्यान रहता है, उस घर पर चामुण्डा कभी कुपित नहीं होती।

बासी भोग क्यों?

शीतला की प्रसन्नता के लिए एक समय का पका तेल के गुलगुले आदि पक्वान चढ़ाने और खाने का प्रायः सर्वत्र प्रचार है।

यद्यपि साधारणतया बासी अन्न खाने का निषेध मिलता है, परन्तु चिकित्सा-शास्त्र कहता है कि बासी अन्न-भक्षण से शैथिल्य बढ़ता है। रक्त की अनावश्यक बढ़ती हुई प्रगति को रोकने में अर्थात् रक्त दबाव ( Blood Pressure) का बैलेंस ठीक रखने के लिए तेल में पका बासी स्निग्ध पक्वान भोजन बहुत हितप्रद सिद्ध होता है। साधारण स्थिति में जो शैथिल्य दूषण है; शीतला-प्रकोप में वही वरदान बन जाता है।

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