सिर मुंड़ाते ही ओले पड़ना
Sir ke Mundte hi Ole Padna
एक दिन अचानक बारिश हो गई। दादाजी बाहर से भीगते हुए आए और बोले-“आज हमारे पिछवाड़े तिलकराज की बेटी की शादी है। टैंट वालों ने शादी का पंडाल लगाया ही था कि बारिश शुरू हो गई। इसे कहते हैं सिर मुंड़ाते ही ओले पड़ना।” कहते हुए दादाजी ने अपने गीले कपड़े उतारे। अमर भागकर दादाजी के पहनने के लिए और कपड़े ले आया।
“दादाजी, आपने कहा कि जब शादी का पंडाल लग रहा था तब बारिश हो गई, तो सिर मुंड़ाते ही ओले पड़ने की क्या बात हुई?” अमर ने पूछ लिया। “बेटा, जब कोई काम पूरा होते ही उसमें रुकावट पैदा हो जाए, तो ऐसा ही कहा जाता है। तुम्हें इस कहावत की कहानी सुनाता हूँ। सुनोगे?” दादाजी बोले।
“हाँ, दादाजी?” अमर और लता ने एक साथ कहा। दादाजी ने कहानी शुरू की-एक आश्रम था। उसमें साधु-महात्मा अपने चेलों के साथ रहते थे। चेले सुबह उठकर व्यायाम करते। नहा-धोकर पूजा-पाठ करते। दिन-भर गुरुजी का उपदेश सुनते और धार्मिक पुस्तकें पढ़ते।
शाम को जंगल में जाकर लकड़ी काटकर लाते। कुछ चेले आसपास के गाँव में जाकर भिक्षा माँग लाते। आश्रम में वापस आकर पूजा-आरती करते। चेले मिल-जुलकर रात का खाना बनाते। फिर खाना खाकर गुरुजी की कथाएँ सुनते और सो जाते। । * आश्रम में रहकर चेले ज्ञान-ध्यान की बातें सीखते। गीता, रामायण, वेद, उपनिषद् आदि पढ़ते। अनेक धार्मिक विषयों पर चर्चा करते। दूर-दूर से नवयुवक वहाँ शिक्षा-दीक्षा ग्रहण करने के लिए आते थे। जब वे परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाते, तब उन्हें ज्ञानी की उपाधि दी जाती। फिर वे लोगों को उपदेश देने लगते थे। इस प्रकार से आश्रम एक ज्ञान-मंदिर था जहाँ लोग ज्ञान ग्रहण करके उसका प्रचार भी करते थे। आश्रम में चेलों को जड़ी-बूटियों से दवाइयाँ बनाना भी सिखाया जाता था। उन्हें योग-क्रियाएँ सिखाई जाती थीं। मंत्रों के द्वारा बीमार लोगों को। इलाज करने की विधि का रहस्य समझाया जाता था। इस प्रकार महात्मा और उनके चेले मिलकर आम लोगों के कल्याण का काम कर रहे थे।” कहते-कहते दादाजी रुक गए।
लेकिन दादाजी, वह ओले पड़ने वाली बात कैसे हुई?” लता ने दादाजी से पूछा। दादाजी बोले-आश्रम के अंदर महात्माओं और चेलों के रहने के लिए अलग-अलग कमरे थे। आश्रम के बीचों-बीच एक सुंदर मंदिर था।
में शिवलिंग के अलावा अनेक देवी-देवताओं की मूर्तियाँ थीं। मंदिर के दिनी तरफ महात्माओं के ठहरने के लिए कमरे बने थे। बाईं ओर चेल के लिए कमरे थे। मंदिर के ठीक पीछे बहुत बड़ा हॉल था जिसमें महात्मा लोग चेलों को उपदेश देते थे। वहाँ सत्संग और भजन-कीर्तन भी होते थे।
जब शिक्षा ग्रहण करने के लिए नए चेले आते थे, तो सबसे पहले उन्हें अपना सिर मुंड़ाना पड़ता था। एक बार कुछ नए चेले आए। मंदिर की परंपरा के अनुसार उन्होंने अपने सिर मुंडवाए और नहा-धोकर गेरुए रंग के वस्त्र पहन लिए। फिर महात्मा जी के चरण छूकर आशीर्वाद लिया। उसी समय आकाश में बादलों से घोर गर्जन हुआ और बिजली कड़कने लगी। महात्मा जी बोले-‘जाओ बेटे, अब बाहर मंदिर में जाकर पूजा-अर्चना करो।
वहाँ पंडित जी तुम्हें मंत्रों के साथ जनेऊ धारण कराएँगे।’ यह सुनकर सभी चेलों ने शीश नवाया और बाहर निकल आए। उसी वक्त तड़तड़ ओले गिरने शुरू हो गए। “अरे, यह क्या हुआ?’ एक चेला बोला-‘लो, आज तो सिर मुंड़ाते ही ओले पड़ने शुरू हो गए। ” दादाजी ने कहानी पूरी की। कहानी सुनकर अमर और लता ने खुशी से उछलते हुए ताली बजाई।।