Hindi Moral Story Essay on “चुहिया की चुहिया”, “Chuhiya ki Chuhiya” Complete Paragraph for Class 5, 6, 7, 8, 9, 10 Students.

चुहिया की चुहिया

Chuhiya ki Chuhiya

एक वन में एक तपस्वी रहते थे। उनका तप बल बहुत ऊँचा था। रोज वे प्रातः आकर नदी में स्नान करते और नदी किनारे की एक चट्टान पर आसन जमाकर तप करते। निकट ही उनकी कुटिया थी, जहाँ उनकी पत्नी भी रहती थी।

एक दिन एक विचित्र घटना घटी। तपस्या के बाद ईश्वर को प्रणाम करके उन्होंने अपने हाथ खोले कि उनके हाथों में एक नन्ही सी चुहिया आ गिरी। आकाश में एक चील उसे पंजों में दबाए उड़ी जा रही थी और संयोगवश छूटकर गिर पड़ी थी। ऋषि ने मौत के भय से थर-थर काँपती चुहिया को देखा।

ऋषि के कोई संतान नहीं थी। कई बार पत्नी संतान की इच्छा व्यक्त कर चुकी थी। ऋषि दिलासा देते रहते थे। ऋषि को पता था कि उनकी पत्नी के भाग्य में माँ बनने का सुख नहीं लिखा है। किस्मत का लिखा तो बदला नहीं जा सकता, परंतु अपने मुँह से यह सच्चाई बताकर वे पत्नी का दिल नहीं दुःखाना चाहते थे। यह भी सोचते रहते थे कि किस उपाय से पत्नी के जीवन का यह अभाव दूर किया जाए।

ऋषि को नन्ही चुहिया पर दया आ गई। उन्होंने आँखें बंद कर मंत्र पढ़ा और अपनी तपशक्ति से चुहिया को बच्ची बना दिया। बच्ची को हाथों में उठाए घर पहुँचे और अपनी पत्नी से बोले, “सुभागे, तुम सदा संतान की कामना किया करती थीं, समझ लो कि ईश्वर ने तुम्हारी प्रार्थना सुन ली और यह बच्ची भेज दी। इसे अपनी पुत्री समझकर इसका लालन-पालन करो।”

ऋषि पत्नी बच्ची को देखकर बहुत प्रसन्न हुई। बच्ची को अपने हाथों में लेकर चूमने लगी, “कितनी प्यारी बच्ची है। यह मेरी बच्ची ही तो है। इसे मैं पुत्री की तरह पालूँगी।”

इस प्रकार वह चुहिया मानव बच्ची बनकर ऋषि के परिवार में पलने लगी। ऋषि पत्नी माँ की भाँति ही उसकी देखभाल करने लगी। उसने बच्ची का नाम कांता रखा। ऋषि भी कांता से पितावत स्नेह करने लगे। धीरे-धीरे वह यह भूल गए कि उनकी पुत्री कभी चुहिया थी।

माँ तो बच्ची के प्यार में खो गई। वह दिन-रात उसे खिलाने खेलने में लगी रहती। ऋषि अपनी पत्नी को ममता लुटाते देख प्रसन्न होते कि आखिर संतान न होने का उसे दुःख नहीं रहा। ऋषि ने स्वयं भी उचित समय आने पर कांता को शिक्षा दी और ज्ञान-विज्ञान की बातें सिखाईं। समय पंख लगाकर उड़ने लगा। देखते-ही-देखते माँ का प्रेम तथा ऋषि का स्नेह व शिक्षा प्राप्त करती कांता बढ़ते-बढ़ते सोलह वर्ष की सुंदर, सुशील व योग्य कन्या बन गई। माता को बेटी के विवाह की चिंता सताने लगी। एक दिन उसने ऋषि से कह डाला, “सुनो, अब हमारी कांता विवाह योग्य हो गई है। हमें हाथ पीले कर देने चाहिए।”

तभी कांता वहाँ आ पहुँची। उसने अपने केशों में फूल गूँथ रखे थे। चेहरे पर यौवन दमक रहा था। ऋषि को लगा कि उनकी पत्नी ठीक कह रही है। उन्होंने धीरे से अपनी पत्नी के कान में कहा, “मैं हमारी बिटिया के लिए अच्छे-से-अच्छा वर ढूँढ़ निकालूँगा।”

उन्होंने अपने तपोबल से सूर्यदेव का आह्वान किया। सूर्य ऋषि के सामने प्रकट हुए और बोले, “प्रणाम मुनिश्री, कहिए आपने मुझे क्यों स्मरण किया ?

क्या आज्ञा है ?”

ऋषि ने कांता की ओर इशारा करके कहा, “यह मेरी बेटी है। सर्वगुण संपन्न और सुशील। मैं चाहता हूँ कि तुम इससे विवाह कर लो।”

तभी कांता बोली, “तात, यह बहुत गरम हैं। मेरी तो आँखें चुँधिया रही हैं। मैं इनसे विवाह कैसे करूँ ? न कभी इनके निकट जा पाऊँगी, न देख पाऊँगी।”

ऋषि ने कांता की पीठ थपथपाई और बोले, “ठीक है। दूसरे और श्रेष्ठ वर देखते हैं।”

सूर्यदेव बोले, “ऋषिवर, बादल मुझसे श्रेष्ठ हैं। वह मुझे भी ढक लेता है। उससे बात कीजिए। “

ऋषि के बुलाने पर बादल गरजते-बरजते और बिजलियाँ चमकाते हुए प्रकट हुए। बादल को देखते ही कांता ने विरोध किया, “तात, ये तो बहुत काले रंग का है। मेरा रंग गोरा है। हमारी जोड़ी नहीं जमेगी।”

ऋषि ने बादल से पूछा, “तुम्हीं बताओ कि तुमसे श्रेष्ठ कौन है ?” बादल ने उत्तर दिया, “पवन। वह मुझे भी उड़ाकर ले जाता है। मैं तो उसी के इशारे पर चलता रहता हूँ।”

ऋषि ने पवन का आह्वान किया। पवन देव प्रकट हुए तो ऋषि ने कांता से ही पूछा, “पुत्री, तुम्हें यह वर पसंद है ?”

कांता ने अपना सिर हिलाया, “नहीं तात ! यह बहुत चंचल हैं। एक जगह टिकेगा ही नहीं। इसके साथ गृहस्थी कैसे जमेगी ?”

ऋषि की पत्नी भी बोली, “हम अपनी बेटी पवन देव को नहीं देंगे। दामाद कम-से-कम ऐसा तो होना चाहिए, जिसे हम अपनी आँख से देख सकें।”

ऋषि ने पवन देव से पूछा, “तुम्हीं बताओ कि तुमसे श्रेष्ठ कौन है ?” पवन देव बोले, “ऋषिवर, पर्वत मुझसे भी श्रेष्ठ है। वह मेरा रास्ता रोक लेता है।”

ऋषि के बुलावे पर पर्वतराज प्रकट हुए और बोले, “ऋषिवर, आपने मुझे क्यों याद किया ?”

ऋषि ने सारी बात बताई। पर्वतराज ने कहा, “पूछ लीजिए कि आपकी कन्या को मैं पसंद हूँ क्या ?”

कांता बोली, “ओह! यह तो पत्थर-ही-पत्थर है। इसका दिल भी पत्थर का होगा।”

ऋषि ने पर्वतराज से उससे भी श्रेष्ठ वर बताने को कहा तो पर्वतराज बोले, “चूहा मुझसे श्रेष्ठ है। वह मुझे भी छेदकर बिल बनाकर उसमें रहता है।”

पर्वतराज के ऐसा कहते ही एक चूहा उनके कानों से निकलकर सामने आ कूदा। चूहे को देखते ही कांता खुशी से उछल पड़ी, “तात, तात! मुझे यह चूहा बहुत पसंद है। मेरा विवाह इसी से कर दीजिए। मुझे इसके कान और पूँछ बहुत प्यारे लग रहे हैं। मुझे यही वर चाहिए।”

ऋषि ने मंत्र बल द्वारा एक चुहिया को मनुष्य तो बना दिया, पर उसका दिल चुहिया का ही रहा। ऋषि ने कांता को फिर से चुहिया बनाकर उसका विवाह चूहे से कर दिया और दोनों को विदा किया।

सीख : जन्मजात स्वभाव नकली उपायों से नहीं बदला जा सकता ।

 

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