Hindi Essay on “Sanskritik Karyakram kitne Asanskritik”, “सांस्कृतिक कार्यक्रम कितने असांस्कृतिक”, for Class 10, Class 12 ,B.A Students and Competitive Examinations.

सांस्कृतिक कार्यक्रम कितने असांस्कृतिक

Sanskritik Karyakram kitne Asanskritik

आज हमारे देश में सांस्कृतिक कार्यक्रमों की सर्वत्र धूम है । पंजाब में सभ्याचारक मेलों के नाम पर ऐसे कार्यक्रम सरकार द्वारा भी जगह-जगह करवाये जा रहे हैं । इन सांस्कृतिक कार्यक्रमों में लचरपने को देखकर हमारा सिर शर्म से झुक जाता है और हम यह सोचने पर विवश हो जाते हैं कि क्या यही हमारी संस्कृति है जिसके बूते पर हम संसार का गुरु होने का दावा सदियों तक करते रहे हैं । आज किसी शिक्षण संस्था को देखिए, किसी राष्ट्रीय पर्व में शामिल होइए या किसी विदेशी अतिथि के स्वागत समारोह में जाइए आपको सर्वत्र पायलों की झंकार और नुपुरों की मधुर रुनझुन सुनाई देगी। आज प्राइमरी स्कूलों के नन्हें-मुन्ने बालक-बालिकाओं से लेकर विश्वविद्यालयों के विकसित मस्तष्क वाले युवक-युवतियां भी इन तथाकथित सांस्कृतिक कार्यक्रमों में मग्न दिखाई दे रही हैं। प्रश्न उठता है कि हमारे देश की संस्कृति केवल नृत्य, गीत, राग-रस तक ही सीमित रह गयी है । संस्कृति के उदात्त तत्व को केवल संगीत और अभिनय तक ही सीमित कर देना कहां तक न्याय है ? हमारे देश के विद्यालयों के अधिकांश छात्रों का पर्याप्त समय इन कार्यक्रमों की तैयारी में ही नष्ट हो जाता है । आज 15 अगस्त है तो कल 26 जनवरी । आज युवक समारोह (Youth Festival) है तो कल कुछ और । छात्रों को शिक्षा और उनके चरित्र के विषय में कुछ भी अवगत न कराया जाए परन्तु एक रसिक आयोजन अवश्य होगा। इन आयोजनों की तैयारी में छात्रों का अमूल्य समय और उससे भी मूल्यवान चरित्र कितना नष्ट होता है, इसकी ओर किसी का ध्यान ही नहीं है । आज विदेशी अतिथि आते हैं, हमारी सभ्यती, विचारधारा और जीवन निर्वाह के साधन देखने के लिए, परन्तु हम भारत की वास्तविकता दिखाने की अपेक्षा कल्चरल प्रोग्राम के नाम पर उन्हें दिखाते हैं अपनी जवान बहिन-बेटियों का नाच ? क्या हमारे पास कोई अच्छी वस्तु दिखाने को नहीं है। क्या हम उन्हें अरविन्द आश्रम, शांति-निकेतन और गुरुकुलों की सैर नहीं करा सकते ? जो लोग इन नाचों को कराते हैं, चाहे वे माता-पिता हों या शिक्षक हों या सरकारी अधिकारी हों अथवा मंत्री हों वे अवश्य ही पापों को प्रोत्साहन देने वाले हैं। हम शिक्षकों और शिक्षिकाओं से निवेदन करते हैं कि कृपया वे बालिकाओं को नाचना न सिखायें और उनका जीवन विलासिताप्रिय न बनाएं । प्रसिद्ध आचार्य श्री क्षति मोहन सेन ने ठीक ही कहा था कि मुझे तो ऐसा लगता है कि हम लोग संस्कृति शब्द का अर्थ ही भूल गये हैं ।

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