Hindi Essay on “Dada Bada na Bhaiya, Sabse bada Rupya ”, “दादा बड़ा न भैया, सबसे बड़ी रुपया”, for Class 10, Class 12 ,B.A Students and Competitive Examinations.

दादा बड़ा न भैया, सबसे बड़ी रुपया

Dada Bada na Bhaiya, Sabse bada Rupya 

मानव एक सामाजिक प्राणी है वह समूह में रहकर जीवनयापन करता है। एक समय था, जब मनुष्य अपने समूह के सदस्यों अर्थात् रिश्तेदारों के लिए सर्वस्व न्योछावर करने को तैयार रहता था। किन्तु परिवर्तन तो प्रकृति का नियम है। समय बदला, मानव मूल्य भी बदल गए। अब मनुष्य दादा, चाचा, मामा, भैया वगैरह इन सब सम्बन्धों से ऊपर धन को ही मानने लगा। इसीलिए यह लोकोक्ति प्रसिद्ध हो गई–

दादा बड़ा न भैया, सबसे बड़ा रुपया।”

यदि वास्तव में देखा जाए तो धन है भी अत्यन्त महत्वपूर्ण। धन चाहे रुपये के रूप में हो, डालर के रुप में दीनार या फिर सोने के रूप में, यह विनियम का साधन है। इसके बदले में जीवनोपयोगी विभिन्न पदार्थ प्राप्त किए जा सकते हैं। धन से मनुष्य सर्वत्र सम्मान पाता है। कल तक का राम, धन आते ही सेठ रामप्रसाद बन जाता है। धन आ जाने से रहन-सहन के तौर-तरीके, बात करने का ढंग, पहनने। का सलीका आदि सब कुछ परिवर्तित हो जाता है। रिश्तेदार आगे पीछे चक्कर काटने लगते हैं। धन की खुशबू से सभी बाधाएँ अपने आप दूर हो जाती हैं। धनवान व्यक्ति ही कुलीन, गुणी, कुशल वक्ता, दर्शनीय और सुयोग्य बन जाता है। पहले कहा करते थे कि जहाँ लक्ष्मी का निवास है, वहाँ सरस्वती नहीं हो सकती, क्योंकि लक्ष्मी व सरस्वती में आपसी वैर है। आजकल लगता है कि लक्ष्मी व सरस्वती दोनों ने आपस में मित्रता कर ली है। इसीलिए वर्तमानकाल में धनी मनुष्य ही विद्या प्राप्त कर पाता है। यह अलग बात है कि परीक्षा में अच्छे अंक पाने के लिए टयुशन रखकर, परीक्षक को चढ़ावा चढ़ाकर खुश करना पड़ता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि केवल सम्पन्न लोग ही उच्च शिक्षा प्राप्ति हेतु सुद्र देशों में जा सकते हैं। यदि कोई निर्धन व योग्य व्यक्ति उच्च शिक्षा पाने में सफल हो जाए, तो अपवाद ही कहा जाएगा। धन के इसी महत्व को दर्शाते हुए संस्कृत में कहा गया है–

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यस्वास्ति वितं स नरः कुलीनः

से पण्डितः स श्रुतवान् गुणज्ञः।

स एव वक्ता स च दर्शनीयः,

सर्वे गुणाः काञ्चनयाश्रमन्ति।।”

धन कुबेर का खजाना है, धन देवी लक्ष्मी के हाथों की मेल है। धन की ललक ! भी प्रत्येक को रहती है, किन्तु जहाँ गुण होंगे; वहाँ कुछ दोष होना भी स्वाभाविक है। धन के आ जाने से लोग और अधिक धन पाने की लालसा करने लगते हैं। धन के साथ-साथ दर्प, कृपणता, भय, चिन्ता आदि अवगुण तो स्वयमेव आ जाते हैं। मैथिलीशरण गुप्त जी लिखते हैं–

सोना पाकर भी क्या सुख से तु सोने पावेगी ?

बढ़ती हुई लालसा तुझको, कहाँ न ले जावेगी ?”

धनी मनुष्य अपने धन को तिजोरियों से छुपाकर रखता है। चाहे कोई कितनी भी दौलत क्यों न संचित कर ले, उसे कदापि संतोष नहीं होता। धन-सम्पन्न मनुष्य किसी का मान-सम्मान नहीं करता। निर्धन लोगों से सम्बन्ध रखने में अपनी हेठी मानता है।

वर्तमान समय में धन कमाने की एक होड़-सी लगी हुई है। चाहे कोई राजा है या रंक, सभी इस दौड़ में अन्धाधुंध भागे चले जा रहे हैं। यद्यपि धन विष की भाँति विभिन्न दुर्गुणों को जन्म देने वाला है, तथापि लोग इसे अमृत-सा मानकर इसका सेवन करना चाहते हैं। गुप्त जी के शब्दों में–

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जो जिसको उपलब्ध, उसी में असंतोष है उसको,

राजा भी है रंक यहाँ पर कौन दोष है उसको ?

ऐहिक उन्नति के अधिकारी, गुण ही इसको मार्ने,

विष भी अमृत बना बैठा है, अपने एक ठिकाने।”

धन के लालच में लोग निकृष्टतम तरीके अपनाने से भी नहीं चूकते। इस धन की लालसा ने भ्रष्टाचार को जन्म दिया। कालाबाजारी, रिश्वतखोरी, मिलावट जमाखोरी इन सबको मूल कारण यही धन ही तो है। जद तक व्यक्ति के पास धन रहता है, तय तक शहद पर मंडरासी मक्खियों के समान उसके असंख्य मित्र भी बन जाते हैं। धन न रहने पर कोई पास तक नहीं फटकता। गिरधर कवि ने । इस सत्य को कितने सुन्दर शब्दों में उजागर किया है।

सांई या संसार में, मतलब का व्यवहार।

जब लगि पैसा गाँठ में, तब लगि ताको यार ।।

तब लगि ताको यार, यार संग ही संग डोले।

पैसा रहा न पास, यार मुख से न बोले।

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कह गिरधर कविराय, जगत् यह लेखा भाई।।

करत बेगरज प्रीति, यार बिरला है सोई।।

ऐसा नहीं है कि धन बटोरने के लिए केवल उपरोक्त अवैध धन्धे ही अपनाए जाते हैं। कुछ लोग तो धन कमाने के लिए कड़ा श्रम भी करते हैं। हाँ, कुछ शराफत के मुखौट के पीछे बैठे बिठाए ही दहेज के रूप में धन पा लेना चाहते हैं। धन की तीव्र लालसा के कारण कई बार तो बहओं, माताओं व बहनों की हत्या करते हुए भी लोग देखे गए हैं।

अन्ततः धन ही श्री (शोभा) का मूल है, सफलता के द्वार है, और सम्बन्धों का सूत्र है। धन के समक्ष छोटे-बड़े, सगे-सम्बन्धी, भाई-यहन, माता-पिता, दादा-दादी आदि सभी नगण्य हैं। धन से बढ़कर कोई सगा नहीं, और कोई महत्वपूर्ण नहीं। इसीलिए आधुनिक कलियुग में यह उक्ति पर्णतया सार्थक है।

दादा बड़ा न भैया, सबसे बड़ा रुपया।’

 

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