Dr. Sarvepalli Radhakrishnan Jayanti “डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन जयन्ती” Hindi Essay, Paragraph for Class 9, 10 and 12 Students.

डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन जयन्ती (Dr. Sarvepalli Radhakrishnan Jayanti)

डॉ. राधाकृष्णन का जन्म 5 सितम्बर, 1888 को हुआ था। इनका मूल गाँव सर्वपल्ली था। पर इनके पूर्वज तिरुतणी गाँव में आ बसे थे। यह स्थान चेन्नई (मद्रास) से चालीस-पचास मील की दूरी पर ही है। राधाकृष्णन बाद में मद्रास में ही रहने लगे थे। इनके पिता वीर स्वामी शिक्षक थे। साथ ही वे पुरोहिताई भी करते थे। धर्म और शिक्षा के प्रति प्रेम राधाकृष्णन को पिता से ही मिला।

राधाकृष्णन की प्रारंभिक शिक्षा पिता द्वारा घर पर ही संपन्न हुई। उसके बाद वेल्लोर में पढ़ाई की। फिर मद्रास के क्रिश्चियन कॉलेज में शिक्षा ग्रहण की। उन्होंने एम.ए. दर्शनशास्त्र में किया। पढ़ाई के साथ-साथ विद्यार्थियों की ट्यूशन भी करते थे। सन् 1917 में वे मद्रास के प्रेसीडेंसी कॉलेज में लेक्चरार हो गए।

मैसूर रियासत के दीवान डॉ. विश्वेश्वरैया ने राधाकृष्णन को मैसूर के महाराजा कॉलेज में दर्शनशास्त्र का प्रोफेसर नियुक्त कर दिया। राधाकृष्णन हिन्दू धर्म और हिन्दू दर्शन पर तो विद्वतापूर्ण भाषण देते थे, क्रिश्चियन कॉलेज में पढ़े होने के कारण उन्हें अंग्रेजी भाषा पर भी पूरा अधिकार था। वे धारा- प्रवाह अंग्रेजी में बोलते थे। उनके विचारों और भाषणों ने उनको काफी प्रसिद्ध और लोकप्रिय बना दिया था।

राधाकृष्णन बहुत सादगीपसंद थे। वे हमेशा सफेद धोती, बंद गले का कोट और पगड़ी पहनते थे। एकदम धवल और स्वच्छ परिधान में उनका व्यक्तित्व एकदम अलग नजर आता था। उनके विद्यार्थी उन्हें अत्यधिक सम्मान और आदर देते थे। उनको विद्यार्थी कितना प्यार करते थे इसका एक छोटा-सा उदाहरण है। राधाकृष्णन तीन वर्ष मैसूर में रहने के बाद जब कलकत्ता जाने लगे तो मैसूर के छात्रों ने अपने प्रिय और आदरणीय गुरु को एक गाड़ी में बैठाया। उस गाड़ी को सैकड़ों छात्र अपने हाथों से खेंचते हुए स्टेशन तक ले गए। मैसूर की सड़कों पर यह एक अद्भुत दृश्य था।

राधाकृष्णन कलकत्ता विश्वविद्यालय में पोस्ट ग्रेजुएट विभाग के दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर पद पर आसीन हुए। कलकत्ता विश्वविद्यालय बहुत प्रसिद्ध था और सब विश्वविद्यालयों में प्रतिष्ठित था। इसी कॉलेज में रहते राधाकृष्णन कॉलेज के प्रतिनिधि के रूप में हार्वर्ड विश्वविद्यालय अमेरिका में अन्तरराष्ट्रीय दर्शनशास्त्र कांग्रेस में भाग लेने गए। यहाँ इनके विद्वतापूर्ण भाषणों से लोग स्तब्ध रह गए। लोगों को लगने लगा कि यह दूसरे विवेकानन्द पैदा हुए हैं।

सन् 1931 में राधाकृष्णन ने आन्ध्र विश्वविद्यालय में कुलपति पद की शोभा बढ़ाई। चूँकि इस विश्वविद्यालय की स्थापना 1926 में ही हुई थी अतः इसके विकास के लिए राधाकृष्णन को काफी श्रम करना पड़ा। जल्दी ही वहाँ प्रयोगशाला, लाइब्रेरी, छात्रावास, विद्यालय भवन का विस्तार कर अपनी कार्यक्षमता का परिचय दिया। उन्होंने कलकत्ता वि.वि. का पद छोड़ा नहीं था। वे समय-समय पर वहाँ जाते रहते। इसके अलावा विदेशों से भी उन्हें दर्शन और धर्म पर भाषण देने के लिए निमंत्रण आते रहते। कलकत्ता में रहते समय से ही वे छः माह इंग्लैंड और छः माह कलकत्ता रहते ।

महामना मदन मोहन मालवीय ने अपने बनारस स्थित हिन्दू विश्वविद्यालय का कुलपति बनाने के लिए इन्हें राजी कर लिया। पर राधाकृष्णन ने किसी तरह का वेतन लेना स्वीकार नहीं किया। यहाँ काम बढ़ जाने पर उन्होंने कलकत्ता का पद छोड़ दिया।

राधाकृष्णन ने अपने जीवन के चालीस वर्ष शिक्षक के रूप में ही बिताए थे। उन्होंने सिद्ध किया कि वे सचमुच एक आदर्श शिक्षक हैं। शिक्षक के अलावा वे एक श्रेष्ठ लेखक भी थे। कुलपति के पद पर रहकर स्वयं को अच्छा प्रशासक भी सिद्ध किया। श्रेष्ठ वक्ता तो थे ही। राजनीति का ज्ञान भी उनका कम नहीं था। वे 12 से 18 घंटे काम करते थे।

भारत के राजदूत के रूप में वे रूस में रहे। इस पद पर रहते हुए लंदन अध्यापन के लिए भी जाते रहे। शिक्षा मंत्री मौलाना आजाद ने स्वतंत्र भारत के विकास के लिए एक आयोग बनाया था। डॉ. राधाकृष्णन इस आयोग के अध्यक्ष बनाए गए थे। पहला एशियाई शिक्षा सम्मेलन काशी में व दूसरा लखनऊ में हुआ था। दोनों ही बार अध्यक्ष डॉ. राधाकृष्णन को ही बनाया गया था। कई राष्ट्रीय, अन्तरराष्ट्रीय समितियों से जुड़े रहे। सन् 1952 में जब भारत में चुनाव हुए तब उपराष्ट्रपति के पद पर डॉ. राधाकृष्णन का निर्विरोध चुनाव हुआ। 1961 में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद बीमार हुए तब राधाकृष्णन ने ही उनका पद सँभाला। पर उन्होंने राष्ट्रपति वाला वेतन नहीं लिया और न ही अपना निवास बदला। उपराष्ट्रपति वाला ही वेतन लिया और उसी बंगले में रहे।

डॉ. राधाकृष्णन शिक्षाविद् थे। दर्शनशास्त्र, संस्कृति व धर्मशास्त्र के विद्वान थे। वे महान लेखक थे। उन्होंने 150 से अधिक पुस्तकों का लेखन-सम्पादन किया था। उनकी सबसे पहली पुस्तक थी ‘द फिलॉसफी ऑफ रविन्द्रनाथ टैगोर’, इसके बाद गीता, ब्रह्मसूत्र, धम्मपद, गांधी, भारत और चीन सहित शिक्षा, राजनीति और आत्मकथा व भारत और चीन पुस्तकें उल्लेखनीय हैं। उनकी विश्व प्रसिद्ध पुस्तक है ‘इन्डियन फिलॉसफी’ जो दो भाग में प्रकाशित है।

इस महान विभूति की जयन्ती 5 सितम्बर को अध्यापक दिवस के रूप में मनाई जाती है। पर यह पर्याप्त नहीं है। जिस व्यक्ति को सारा संसार मानता और सम्मान देता है उसका जन्मदिवस अध्यापकों और विद्यार्थियों को मिलकर मनाना चाहिए। उनके गुणों को अपनाने का प्रयास करना चाहिए। सन् 1954 में डॉ. राधाकृष्णन को कृतज्ञ राष्ट्र ने ‘भारत रत्न’ से अलंकृत किया था। इनका 17 अप्रैल, 1975 को स्वर्गवास हो गया था।

कैसे मनाएँ डॉ. राधाकृष्णन जयन्ती (How to celebrate Dr. Radhakrishnan Jayanti)

  1. डॉ. राधाकृष्णन का चित्र लगाएँ ।
  2. माल्यार्पण कर दीपक जलाएँ।
  3. राधाकृष्णन ने हिन्दू धर्म, हिन्दू दर्शन और शिक्षा के क्षेत्र में. महत्वपूर्ण योगदान दिया है। साधनहीन गाँव में जन्म लेकर वे इतने बड़े देश के राष्ट्रपति पद तक पहुँचे। इनकी जीवनी काफी प्रेरणादायक है। इनकी सादगी, श्रम और धर्म के प्रति आस्था से बच्चों को प्रेरित किया जाए।
  4. राधाकृष्णन कैसे इतने लोकप्रिय अध्यापक बने, यह न केवल अध्यापकों बल्कि विद्यार्थियों के लिए भी प्रेरणादायक प्रसंग है। इस विषय पर अध्यापकों व विद्यार्थियों के बीच एक चर्चागोष्ठी आयोजित की जा सकती है- ‘विद्यार्थी गुरु से क्या चाहते हैं और गुरु विद्याथियों से क्या चाहते हैं?”
  5. इनके कोटेशन्स की प्रतियोगिता की जा सकती है।
  6. चूँकि यह दिन शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है, अतः बच्चे अपने गुरुओं का सम्मान करें।
  7. बच्चे सार्वजनिक रूप से एक ‘वचन’ गुरुओं के प्रति दें और गुरु शिष्यों के प्रति सार्वजनिक रूप से उस सभा में एक वचन दें।

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