Mera Priya Lekhak “मेरा प्रिय लेखक” Hindi Essay 700 Words, Best Essay, Paragraph, Anuched for Class 8, 9, 10, 12 Students.

मेरा प्रिय लेखक

Mera Priya Lekhak

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल मेरी वचपन से हिंदी साहित्य में रुचि रही है। जिन लेखकों में मेरा मन सबसे अधिक रमा है, उनमें सबसे अधिक मुझे आचार्य रामचन्द्र शुक्ल पसंद हैं। आचार्य शुक्ल हिंदी के प्रखर आलोचक तो हैं ही साथ ही श्रेष्ठ संपादक, अनुवादक भी हैं। यों वे कविता भी कर लिया करते थे।

आचार्य शुक्ल का आगमन समालोचना के नवीन युग में पदार्पण का सूचक है। उनसे पहले जो आलोचना हुआ करती थी उनमें प्रायः गुण-दोष गिना दिए जाते थे। आचार्य जी ने आलोचना को नए आयाम दिए। उसे विश्लेषणात्मक दृष्टि से संपन्न भी किया-कराया। आधुनिक हिंदी आलोचना के वे सूत्रधार हैं। इसके अतिरिक्त वे हिंदी साहित्य के श्रेष्ठतम निबंधकार हैं।

आचार्य जी ने प्रमुख रूप से भावात्मक और विचारात्मक निबंध लिखे। व्यक्तिगत अनुभवों में विकसित होते हुए भी उनके निबंध विचार की गंभीर विश्लेषणात्मक प्रवृत्ति लिए हुए हैं। अपने ललित निबंधों के संदर्भ में वे चिंतामणि की भूमिका में लिखते हैं. “मेरे ललित निबंध विचारप्रधान हैं। यात्रा करने चली तो है बुद्धि किन्तु हृदय को साथ लेकर।

मेरे प्रिय लेखक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का जन्म उत्तर प्रदेश में बस्ती जिले के अगौना नामक गाँव में सन् 1884 में हुआ घा। सन् 1893 में मिर्जापुर आने पर रमई पट्टी मुहल्ले के एंग्लो संस्कृत जुबली स्कूल में दाखिला लेकर चौदह वर्ष की आय में मिडिल पास किया। इसके बाद वे लंदन मिशन स्कूल में भर्ती हुए। जहाँ से 1901 में उन्होंने स्कूल फाइनल परीक्षा पास की। | स्कूल में उर्द, अंग्रेजी भाषा के पुष्ट ज्ञान के साथ-साथ हिंदी,संस्कृत का ज्ञान स्वाध्याय द्वारा प्राप्त किया। सन् 1901 ई. में उन्होंने | स्कूल फाइनल परीक्षा पास की। स्कूल में उर्दू, अंग्रेजी, भाषा के पुष्ट ज्ञान के साथ-साथ हिंदी, संस्कृत का स्वाध्याय से ज्ञान प्राप्त किया। सन 1901 इन्होंने इलाहाबाद में कायस्थ पाठशाला में इंटरमीडिएट में पढ़ने के लिए नाम लिखवाया। पर पारिवारिक कारणों से अपना उद्देश्य पूरा नहीं कर पाये। सन् 1903 में कचहरी में अप्रटिसशिप शुरू की परन्तु वहाँ के वातावरण से उन्हें घणा हो गई। सन् 1904 में जब नायाब तहसीलदार बनने का सुयोग उन्हें मिला तो ठुकरा दिया। इसी समय उनका अंग्रेजी में ‘व्हाट् हेज’ | इंडिया दह’ निबंध हिन्दुस्तान रिव्यू में छपा। इस निबंध में भारतीयों के कर्तव्य और सरकारी नौकरियों के प्रति उनके दृष्टिकोण का पता चलता है। अजिविका हेतु उन्होंने मिर्जापुर के कार्यालय में फिर लंदन मिशन स्कूल में डाइंग मास्टर के पद पर कार्य किया। भारतेन्दु मंडल के बदरीनारायण चौधरी प्रेमधन के संपर्क में आकर उनकी प्रेरणा से उन्होंने साहित्य सेवा करने का निश्चय किया। ‘भारत’ और ‘वसंत’ नाम से उनका पहला लेख 1896-97 में आनंद कादम्बिनी में प्रकाशित हुआ जिसके संपादक प्रेमघन जो 100 में प्रेमघन जी ने संपादक का दायित्व उन पर डाल दिया। सरस्वती पत्रिका में उनका पहला निबंध छपा ‘कविता या है। सन 1908 में काशी नागरी प्रचारिणी सभा के आमंत्रण पर हिंदी शब्द सागर के संपादन में योगदान देने के लिए वे काशी आ बसे। और जीवन पर्यन्त यहीं रहे। सन् 1912 में नागरी प्रचारिणी पत्रिका के संपादक बने। और साथ ही भाव और मनोविकार संबंधी प्रसिद्ध लेखमाला का धारावाहिक प्रकाशन आरम्भ किया। सन् 1919 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में अध्यापक बने। इसी विश्वविद्यालय में सन् 1937 में हिंदी विभाग के अध्यक्ष बने। लंबी बीमारी के कारण 1941 में उनका देहांत हो गया।

आचार्य जी के गंभीर समीक्षात्मक निबंध चिन्तामणि भाग-1, में संकलित मनोविकार संबंधी निबंध है। ये निबंध मनुष्य के बाहर और भीतर के पक्षों को साथ लेकर चलते हैं। शक्ल जी मुख्य रूप से भाववादी हैं। लेकिन वे भाव में बहते नहीं हैं अपितु भाव के गुणधर्म को दृढ़तापूर्वक पकड़कर सांस्कृतिक एकसूत्रता में नियोजिन पर बल देते हैं। उनकी दृष्टि प्रमुखतः पड़ताल और खोज की है। परम्परा के जीवित अंशों को समसामयिक संदों में परखते चलना और सचेत चिन्तक की भांति हस्तक्षेप करना उनका लेखकीय स्वभाव है। इनके निबंधों में विचारों की मौलिकता. जिज्ञासा और शैलीगत प्रौढ़ता के दर्शन होते हैं। व्याकरण की दृष्टि से भाषा को मानक रूप प्रदान करने की ओर उनका झुकाव है। उनके विख्यात ग्रंथ है।

हिंदी साहित्य का इतिहास, रस मीमांसा, सूरदास, गोस्वामी तुलसीदास और त्रिवेणी। ये इनके आलोचनात्मक ग्रंथ हैं। इनके संपादित ग्रंथ है-जायसी ग्रंथावली, भ्रमरगीत सार, तुलसी ग्रंथावली, कुसुम संग्रह। अनुवाद हैं- ‘लाइट ऑफ ऐशिया’ का ब्रजभाषा पद्य में ‘बद्धचरित’ शीर्षक से और बंगला उपन्यास शशांक का हिंदी अनवाद। उनके सभी निबंध चिंतामणि भाग एक भाग दा और भाग तीन में हैं। चिंतामणि पर हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग की ओर से आचार्य जी को मंगलाप्रसाद से पारितोषिक भी मिला है। ऐसा मूर्धन्य लेखक मेरा आदर्श है। मैं इस लेखक को बार-बार पढ़ता हूँ और उनसे सदा प्रेरित होकर साहित्य सृजन करता है।

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