दूर के ढोल सुहावने
Dur ke Dhol Suhane Lagte Hai
अमर के पापा-मम्मी बाजार से घर के लिए महीने-भर का सामान लेकर आए और दादाजी के पास बैठ गए। अमर के पापा ने कहा-“बाबूजी, दिन पर दिन महँगाई बढ़ती जा रही है। दालें, चावल, गेहूँ, चीनी, तेल आदि सब कुछ महँगा होता जा रहा है। ऊपर से मकान का किराया, बिजली-पानी का खर्च !”
“हाँ, बाबूजी! हमसे तो काम वाली शांतिबाई अच्छी है। सरकारी जमीन पर मुफ्त में रहती है। न मकान की परेशानी, न ही बिजली-पानी का खर्च । फिर वह घरों में काम-धंधा करके भी अच्छा कमा लेती है।” अमर की मम्मी बोली।
“नहीं, बेटा! ऐसी बात नहीं है। दूर के ढोल सुहावने होते हैं। कुछ जे दर से अच्छी दिखाई देती हैं, जबकि असलियत कुछ और ही होती है।” दादाजी ने समझाते हुए कहा। “दादाजी, दूर के ढोल सुहावने कैसे लगते हैं? इसकी क्या कहानी है।” अमर ने दादाजी से पूछा।
हाँ, दादाजी! कहानी सुनाओ न।” लता ने जिद की। दादाजी बोले-अच्छा बेटा, सुनाता हूँ। एक पहाड़ी इलाके में शिखरपुर गाँव बसा हुआ था। उसके सरपंच थे हवेलीराम। उनका अच्छा बड़ा मकान था। खेती-बाड़ी थी। गाय-भैंस थीं। नौकर-चाकर थे। उनका आठ साल का एक
बेटा था। उसका नाम था पवन। हवेलीराम अपने बेटे से बहुत प्यार करते थे। उसके लिए शहर से सुंदर-सुंदर कपड़े, खिलौने आदि लेकर आते थे।
“शिखरपुर गाँव से कुछ दूरी पर एक प्राचीन मंदिर था। उस मंदिर में नाग बाबा की पूजा होती थी। वहाँ रोज शाम को ढोल बजाया जाता था। नाग बाबा की आरती होती थी। उसी दौरान पीतल के बड़े-बड़े घंटे भी बजाए जाते थे। ढोल की आवाज पहाड़ी इलाके में गूंजती थी तो बहुत अच्छी लगती थी। पवन ढोल की आवाज सुनकर अपने माँ-बाप से कहता। कि मुझे वहाँ ले चलो। मुझे ढोल की आवाज बहुत अच्छी लगती है। उसके माँ-बाप उसे समझाते कि बेटा, दूर बज रहे ढोल की आवाज सुहावनी लगती है। पास जाओगे तो उसका शोर सुनकर परेशान हो जाओगे। लेकिन पवन नहीं माना। हवेलीराम को एक तरकीब सूझी। एक दिन उन्होंने एक ढोल वाले को बुलाया और उससे ढोल बजाने को कहा।। बस, फिर क्या था! ढोल बजाना शुरू हुआ। थोड़ी देर बाद ढोल की तेज आवाज सुनकर पवन का सिर दर्द करने लगा। वह चिल्लाया-‘बंद करो।’ यह सुनकर हवेलीराम ने ढोल वाले को वापस भेज दिया। जब शाम हुई तो नाग बाबा के मंदिर में ढोल बजने की गुंजती हुई आवाज सुनाई देने लगी। पवन ढोल की आवाज सुनकर रोने-मचलने लगा और वहाँ जाने की जिद करने लगा।” कहते-कहते कुछ देर दादाजी चुप रहे। फिर बोले “अगले दिन पवन के माँ-बाप उसे नाग बाबा के मंदिर ले गए। शाम होते ही मंदिर में ढोल-नगाड़े और घंटों की आवाज गूंजने लगी। धीरे-धीरे आवाज तेज होने लगी। ढोल की आवाज ऐसे गूंज रही थी मानो बादल गरज रहे हों। थोड़ी देर बाद पवन को ऐसा लगा कि उसके कान के पर्दे फट जाएँगे। उसके सिर में दर्द होने लगा। वह परेशान हो गया और जोर-जोर से रोने लगा-‘चलो पापा! यहाँ से चलो। तब उसके पिता हवेलीराम ने समझाया-‘बेटा, देख लिया न तुमने! दूर के ढोल सुहावने होते हैं। फिर पवन के माँ-बाप उसे घर ले आए।” दादाजी ने कहानी समाप्त करते हुए कहा।
कहानी सुनकर लता बोली-“दादाजी, इसका मतलब यह हुआ कि दूर से किसी चीज की सच्चाई का पता नहीं लगता। यह जरूरी नहीं कि जो दूर से अच्छा लगे, वह पास जाने पर भी अच्छा मिले।”