Hindi Moral Story Essay on “Swarth”, “स्वार्थ” Complete Paragraph for Class 5, 6, 7, 8, 9, 10 Students.

स्वार्थ

Swarth

 

एक पर्वत के समीप बिल में मंदविष नामक एक बूढ़ा साँप रहता था। अपनी जवानी में वह बड़ा रोबीला साँप था। जब वह लहराकर चलता तो बिजली सी कौंध जाती थी, पर बुढ़ापा तो बड़े-बड़ों का तेज हर लेता है। बुढ़ापे की मार से मंदविष का शरीर कमजोर पड़ गया था। उसके विषदंत हिलने लगे थे और फुफकारते हुए दम फूल जाता था। जो चूहे उसके साये से भी दूर भागते थे, वे अब उसके शरीर को फाँदकर उसे चिढ़ाते हुए निकल जाते। पेट भरने के लिए चूहों के भी लाले पड़ गए थे। मंदविष इसी उधेड़बुन में लगा रहता कि किस प्रकार आराम से भोजन का स्थायी प्रबंध किया जाए। एक दिन उसे एक उपाय सूझा और उसे आजमाने के लिए वह दादुर सरोवर के किनारे जा पहुँचा। दादुर सरोवर में मेढकों की भरमार थी। वहाँ उन्हीं का राज था। मंदविष वहाँ इधर-उधर घूमने लगा। तभी उसे एक पत्थर पर मेढकों का राजा बैठा नजर आया। मंदविष ने उसे नमस्कार किया, “महाराज की जय हो।”

मेढकराज चौंका, “तुम! तुम तो हमारे बैरी हो। मेरी जय का नारा क्यों लगा रहे हो?”

मंदविष विनम्र स्वर में बोला, “राजन, वे पुरानी बातें हैं। अब तो मैं हूँ। ऐसा ही मेरे नागगुरु का आदेश है।”

आप मेढकों की सेवा करके पापों को धोना चाहता हूँ। शाप से मुक्ति चाहता हूँ। ऐसा ही मेरे नागगुरु का आदेश है ।

मेढकराज ने पूछा, “उन्होंने ऐसा विचित्र आदेश क्यों दिया?”

मंदविष ने मनगढ़ंत कहानी सुनाई, “राजन्, एक दिन मैं एक उद्यान में रहा था। वहाँ कुछ मानव बच्चे खेल रहे थे। गलती से एक बच्चे का पैर पर पड़ गया और स्वाभाववश मैंने उसे काटा और वह बच्चा मर गया। पये सपने में भगवान् श्रीकृष्ण नजर आए और शाप दिया कि मैं वर्ष समाप्त होते ही पत्थर का हो जाऊँगा। मेरे गुरुदेव ने कहा कि बालक की मृत्यु का कारण बन मैंने कृष्णजी को रुष्ट कर दिया है, क्योंकि बालक कृष्ण का ही रूप होते हैं। बहुत गिड़गिड़ाने पर गुरुजी ने शाप मुक्ति का उपाय बताया। उपाय यह है कि मैं वर्ष के अंत तक मेढकों को पीठ पर बैठाकर सैर कराऊँ।”

मंदविष की बात सुनकर मेढकराज चकित रह गया। साँप की पीठ पर सवारी करने का आज तक किस मेढक को सुख प्राप्त हुआ? उसने सोचा कि यह तो एक अनोखा काम होगा। मेढकराज सरोवर में कूद गया और सारे मेढकों को इकट्ठा कर मंदविष की बात सुनाई। सभी मेढक भौंचक्के रह गए।

एक बूढ़ा मेढक बोला, “मेढक एक सर्प की सवारे करे। यह एक अद्भुत बात होगी। हम लोग संसार में सबसे श्रेष्ठ मेढक माने जाएँगे।”

साँप की पीठ पर सैर के लालच ने सभी मेढकों की अक्ल पर परदा डाल दिया। सभी ने ‘हाँ-में-हाँ’ मिलाई। मेढकराज ने बाहर आकर मंदविष से कहा, “सर्प, हम तुम्हारी सहायता करने के लिए तैयार हैं।”

बस फिर क्या था। आठ-दस मेढक मंदविष की पीठ पर सवार हो गए और निकली सवारी। सबसे आगे राजा बैठा। मंदविष ने इधर-उधर सैर कराकर उन्होंने सरोवर तट पर उतार दिया। मेढक मंदविष के कहने पर उसके सिर पर से होते हुए आगे उतरे। मंदविष सबसे पीछे वाले मेढक को गप्प कर गया। अब तो रोज यही क्रम चलने लगा। रोज मंदविष की पीठ पर मेढकों की सवारी निकलती और सबसे पीछे उतरने वाले को वह खा जाता।

एक दिन एक दूसरे सर्प ने मंदविष को मेढकों को ढोते देख लिया।

बाद में उसने मंदविष को बहुत धिक्कारा, “अरे! क्यों सर्प जाति की नाक कटवा रहा है?”

मंदविष ने उत्तर दिया, “समय पड़ने पर नीति से काम लेना पड़ता है। अच्छे-बरे का मेरे सामने सवाल नहीं है। कहते हैं कि मसीबत के समय गधे को भी बाप बनाना पड़े तो बनाओ।”

मंदविष के दिन मजे से कटने लगे। वह पीछेवाले मेढक को इस सफाई से खा जाता कि किसी को पता तक न लगता। मेढक गिनती करना तो जानते नहीं थे, जो माजरा समझ लेते।

एक दिन मेढकराज बोला, “मुझे ऐसा लग रहा है कि सरोवर में मेढक पहले से कम हो गए हैं। पता नहीं क्या बात है?”
मंदविष ने कहा, “हे राजन, सर्प की सवारी करनेवाले महान् मेढक राजा के रूप में आपकी ख्याति दूर-दूर तक पहुंच रही है। यहाँ के बहुत से मेढक आपका यश फैलाने दूसरे सरोवरों, तलों व झीलों में जा रहे हैं।”

मेढकराज की गर्व से छाती फूल गई। अब उसे सरोवर में मेढकों के कम होने का भी गम नहीं था। जितने मेढक कम होते जाते, वह यह सोचकर उतना ही प्रसन्न होता कि सारे संसार में उसका झंडा गड़ रहा है।

आखिर वह दिन भी आया, जब सारे मेढक समाप्त हो गए। केवल मेढकराज अकेला रह गया। उसने स्वयं को अकेले मंदविष की पीठ पर बैठा पाया तो उसने पूछा, “लगता है सरोवर में मैं अकेला रह गया हूँ। मैं अकेला कैसे रहूँगा?”

मंदविष मुसकराया, “राजन, आप चिंता न करें। मैं आपका अकेलापन भी दूर कर दूंगा।”

यह कहते हए मंदविष ने मेढकराज को भी गप्प से निगल लिया और वहीं भेजा, जहाँ सरोवर के सारे मेढक पहुँचा दिए गए थे।

सीख : शत्रु की बातों पर भरोसा करना घातक होता है।

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