फुफकारो, काटो मत
Fufkaro, Kato Mat
किसी गांव के पास एक चलती सड़क के किनारे, बिल में एक विषधर सांप रहता ने दिनों में अक्सर रात को, और कभी-कभी दिन में भी, वह हवा खाने र आ जाता। रात-बिरात आने-जानेवालों के पैरों से दब जाने से उसने दोआदमियों को काटा और वे तुरन्त मर गये। लोग उसे मारने को खोजने जाते तो भाग जाता। लोगों के जी में उस सांप का ऐसा डर समाया कि वह रास्ता चलना -सा ही हो गया। कोई भूला-भटका उधर जाता तो लोग उसे इस रास्ते जाने से मना करते। अब सांप प्रायः सड़क पर ही रहता। कोई गुजरता तो फन खड़ा करके काटने को दौड़ता। एक दिन कोई संन्यासी महात्मा उधर से जाने लगे तो एक गांववाले ने कहा, “महाराज, उस रास्ते मत जाइए, उस सड़क पर एक भारी काला नाग रहता है। उसने बहुतों को काटा है। उसका काटा आज तक कोई बचा नहीं। अब वह रास्ता एक प्रकार से बन्द ही हो गया है। लोग बहुत फेर खाकर जाते हैं, पर इस रास्ते नहीं जाते।”
संन्यासी ने कहा, “सांप साधु को क्या कहेगा?”
उस आदमी ने कहा, “यह तो आप समझिए; मैंने तो आपको जता दिया। फिर आपको अपनी जान प्यारी नहीं तो जाइए, इसमें मेरा क्या बिगड़ता है?”
संन्यासी ने कहा, “मुझे तो उसी रास्ते जाना है और सांप मिल गया तो उसी को समझाना है।”
उस आदमी ने देखा कि यह भी विचित्र प्राणी है, जो कहते हैं, सांप को समझाएंगे। सांप इनकी सुनेगा? उसे उत्सुकता हुई कि देखना चाहिए कि क्या होता है? उसने महात्मा से पूछा, “आप बरा न मानें तो मैं भी आपके पीछेपीछे आ जाऊं।”
“जरूर आ जाओ, इसमें मेरा क्या जाता है?” “मगर, सांप मिल जाय तो आप मुझे उससे बचाइयेगा?” “तुम बेधड़क चले आओ।”
साधु के चेहरे और उसकी बातों में कुछ ऐसी विलक्षणता थी कि वह आदमी उनके पीछे हो लिया। थोडी दर जाने पर सांप बीच सड़क पर मिला। दिन का समय था। वह कीड़े-मकोडे चुग रहा था। संन्यासी और इस आदमी को
खत ही उसने फन फैलाया और काटने दौड़ा। महात्मा ने कहा, “ठहर जरा। बता, तू लोगों को क्यों काटता है?”
उस आदमी ने देखा, सांप ठहर गया और साधु के सामने फन झुकाकर बोला, “महाराज, यह तो मेरा स्वभाव ही है।”
साधु ने कहा, “यह बुरा स्वभाव है तेरा। पता नहीं, किन पापों के फल से तू सर्प योनि में आया है, और अब लोगों को काटकर क्यों अपने सिर अधिक पाप चढ़ाता है?”
“अब आप जैसी आज्ञा दें करूं।” “आगे किसी को मत काटना।” “आपकी आज्ञा शिरोधार्य है।”
साधु ने सर्प को आशीर्वाद दिया और आगे चला गया। वह आदमी लौटकर गांव में आया। यह किस्सा उसने सबको सुनाया। लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ। अब गांववाले बेखतरे उधर से आने-जाने लगे। यदि सांप रास्ते में दिखाई दे जाता तो उसे कोई-कोई दुष्ट दो-एक ढेला जमा देता। पर, कोई मारो-पीटो, सांप किसी को काटता नहीं। बस, भाग जाता। ढेले खा-खाकर सांप अधमरा-सा हो गया था। एक दिन वही साधु फिर उधर से आ निकला और संयोग से वह सांप भी उसके सामने पड़ गया। सांप ने साधु को प्रणाम किया। साधु ने उसकी दशा पूछी तो बोला, “आप मेरे शरीर से ही अनुमान कर लें। लोग मुझे कभी-कभी ढेलों से मार देते हैं, पर मैं तो आपके वचन पर आरूढ़ हं. मैं किसी को काटता नहीं।”
साधु ने देखा, लोगों ने ढेले मार-मारकर सांप को अधमुआ कर डाला है। उसने सांप से कहा, “मैंने तुम्हें काटने को मना किया था, फुफकारने को तो नहीं?” फुफकारोगे तो लोग डरेंगे और फिर ढेले न मारेंगे।
सांप ने कहा, “मैंने तो आपको अपना गुरु मान लिया है। आप जो सिखावन देंगे मैं उसके अनुसार चलूंगा।”
उस दिन से कोई उसे मारने को ढेला उठाता तो उस पर वह जोर से फुफकारता। तब से ढेला मारनेवाले डरने लगे और सांप भी आनंद से रहने लगा और रास्ता भी यथावत् चलने लगा।