Hindi Essay on “Rath Yatra ka Mela – Odisha”, “रथ यात्रा का मेला – ओडिशा”, for Class 10, Class 12 ,B.A Students and Competitive Examinations.

 

रथ यात्रा का मेला – ओडिशा

Rath Yatra ka Mela – Odisha

आषाढ़ मास में जब आकाश पर काले-काले बादल उमड़ने लगते हैं। बूंदों की फुहारें पडने लगती हैं और वनों के मेदिनी मयूरो की पिहूक गूंजने लगती है, तो रथ यात्रा का मेला भी आरंभ हो जाता है।  यों तो सारे देश में रथ यात्रा का उत्सव बड़े उल्लास के साथ मनाया जाता है, पर जगन्नाथपुरी में जो उत्सव मनाया जाता है।  उसकी अपनी निराली ही छटा होती है।  उस उत्सव में भाग लेने के लिये देश के कोने-कोने से लाखो नर-नारी पुरी पहुँचते हैं और बड़ी श्रद्धा, विश्वास और प्रेम के साथ उत्सव में भाग लेते हैं। उनके कठों से निकले हुये जयनाद से आकाश गूंज उठता है।  इस तरह गूंज उठता है कि समुद्र का गर्जन भी उसमें डूब जाता है।

पुरी में रथ यात्रा के उत्सव को रथ पर्व कहते हैं। यह पर्व बड़ी धूम-धाम से तीन दिनों तक मनाया जाता है।  अन्तिम दिन मंदिर में तीन विशाल रथ सजाये जाते हैं। तीनों रथों को जुलूस के रूप में बाहर निकाला जाता है।   और नगर में घुमाया जाता है।  भक्त और प्रेमी उन रथों को खींचते हैं। लाखों स्त्री-पुरूष उन रथों पर पुष्पों की वर्षा करते हैं। जगन्नाथ जी की वन्दना के गीत गाते हैं। तरह-तरह के बाजे बजते हैं और जय की ध्वनियों से सारा वातावरण गुंजायमान हो उठता है।

लोगों का ऐसा विश्वास है।  जगन्नाथ जी के रथ में कंधा लगाने से अनायास ही मुक्ति पल जाती है।  अतः लोग रथ में कंधा लगाने के लिये उत्सुक और व्याकुल दिखाई पड़ते हैं। प्राचीन काल में बहुत से भक्त और प्रेमी रथ के पहिये के नीचे अपने प्राणों का उत्सर्ग भी कर देते थे, पर अब यह प्रथा कड़ाई के साथ बन्द कर दी गई है।  रथ जब निकलता है, तो मार्ग में कई मील तक सड़क के मध्य में कोई नहीं रहने पाता। इस बात की परी सतर्कता रखी जाती है कि कोई आदमी प्राण देने के लिये सहसा रथ के सामने कूद न पड़े।

मेले में देश के कोने-कोने से लाखों नर-नारी दिखाई पड़ते हैं। तरह-तरह के वेश वाले, तरह-तरह के भाषा वाले रंग-बिरंगे लोगों का ऐसा जमघट होता है कि देखते ही बनता है।  एक विदेशी लेखक ने उस जमघट का वर्णन करते हुए लिखा है।  पुरी के रथ यात्रा के मेले में विशाल भारत सिकुड़कर बहुत छोटा हो जाता है।

जगन्नाथ जी के मंदिर का निर्माण कैसे हुआ। मंदिर में स्थापित मूर्तियाँ बिना अंगों की क्यों हैं।  और रथ यात्रा का मेला क्यों लगता है।  इस सम्बन्ध में एक कथा। प्रचलित है, जो इस प्रकार है।  

पुरी के मंदिर का निर्माण कलिग शैली में हुआ है।  इतिहास से पता चलाता है।  कि मंदिर का निर्माण भीमसेन द्वितीय के शासन काल में हुआ था। मंदिर किसने बनाया और बनाने में कितना व्यय हुआ। इस सम्बन्ध में कहीं कुछ पता नहीं चलता। लोगों का ऐसा विश्वास है कि मंदिर का निर्माण स्वयं विश्वकर्मा के हाथों से हुआ है।  मंदिर में चार कक्ष हैं। जगमोहन (प्रवेशद्वार), नट मंदिर (नृत्य भवन), विमान (गर्भगृह) और भोग मंदिर (भोजनालय)।  ऐसा कहा जाता है कि विश्वकर्मा ब्राह्मण के वेश में पुरी में उपस्थित हुए और उन्होंने रात ही रात में मंदिर को बनाकर तैयार कर दिया।

ऐसी किंवदन्तियाँ प्रचलित हैं कि जगन्नाथ जी के मंदिर में एक सन्दूक रखा हुआ है, जिसमें भगवान कृष्ण की अस्थियां रखी हुई हैं। वह सन्दूक बन्द रहता है।

कोई भी मनुष्य अस्थियों को देख नहीं सकता। एक बार वर्दवान के राजा ने पुजारियों का मिला कर अस्थियों को देखने का दुःसाहस किया था, पर देखते ही राजा की मृत्यु हो गई।

एक कथा के अनुसार सतयुग में पुरी में चारों ओर वन ही वन था। वन के मध्य पत्थरों का एक पर्वत था। जिसे नीलाचल कहते हैं। बहुत से लोग नीलाचल को नीली पहाड़ी भी कहते हैं। पहाड़ी के ऊपर सभी कामनाओं को पूर्ण करने वाला एक वृक्ष था। जिसका नाम कल्पद्रुम था। पश्चिम की ओर एक झरना था। जिसका नाम रोहिणी था। झरने के पास ही नीले पत्थरों की विष्णु भगवान की प्रतिमा थी। प्रतिमा को नीलमाधव के नाम से सम्बोधित किया जाता था।

अवन्ती के राजा इन्द्रधनुष के कानों में प्रतिमा की सुन्दरता का समाचार पड़ा तो उसके मन में प्रतिमा के प्राप्त करने की उत्कंठा उत्पन्न हो उठी। उसने इस काम के लिये एक ब्राह्मण को नियुक्त किया। ब्राह्मण शबर नामक एक वन्य कबीले के साथ नीलाचल पर उपस्थित हुआ।

ब्राह्मण का नाम विद्यापति था। शबर कबीले के प्रमुख का नाम विश्ववसु था। विश्ववसु प्रतिमा के स्थान को जानता था और उसकी पूजा भी किया करता था। विद्यापति ने विश्ववसु से घनिष्ठता प्राप्त कर ली। कहा जाता है कि विद्यापति और विश्ववसु की पुत्री में प्रेम हो गया  था। विश्ववसु की पुत्री ने अपने पिता को इस बात के लिये राजी कर लिया था, कि वह विद्यापति को आँखों में पट्टी बाँध कर नील माधव की प्रतिमा के पास ले जायेगा। विद्यापति नील माधव की प्रतिमा का दर्शन तो कर लेगा, पर उसे प्रतिमा के पास पहुँचने का रास्ता ज्ञात नहीं हो सकेगा।

पर विद्यापति बड़ा चतुर था। वह जब आँखों में पट्टी बाँध कर विश्ववसु के साथ नीलमाधव का दर्शन करने के लिये जाने लगा, तो मार्ग में सरसों के दाने बिखेरता गया। विद्यापति नीलमाधव की प्रतिमा का दर्शन करके मुग्ध हो गया। उसी समय उसके कानों में आकाशवाणी पड़ी-ब्राह्मण तू राजा के पास यह संदेश पहुँचा दे कि तुमने विश्वपति को खोज लिया है।

उसी समय विश्ववस के कानों में एक आकाशवाणी पड़ी-मेरे निष्ठावाने प्रेमी, मैं तुम्हारी वन्य पूजा से ऊब चुका हूँ। अब मेरी पूजा पुरी में जगन्नाथ के रूप में होगी।

इन्द्रद्युम्न को जब समाचार मिला तो वह बड़ा प्रसन्न हुआ। वह लकड़हारों की सेना लेकर चल पड़ा, पर जब वह नील माधव की प्रतिमा के पास पहुँचा, तो उसके पूर्व ही अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया। प्रतिमा अदृश्य हो चुकी थी। राजा का ह्रदय पीड़ा से मथ उठा। उसने प्रायश्चित स्वरूप अश्वमेध यज्ञ जब होने लगा, तो राजा को एक आकाशवाणी सुनाई पड़ी-सहस्त्रों यज्ञ क्यों न करो, पर अब नील माधव का दर्शन पत्थर की प्रतिमा के रूप में नहीं हो सकेगा। अब दर्शन होगा, काष्ठ-प्रतिमा के रूप में, जो समुद्र की लहरों पर तैरती हुई मिलेगी और जिस पर कुछ विशेष चिन्ह होंगे।

सचमुच यज्ञ की समाप्ति पर समुद्र की लहरों पर तैरती हुई काष्ठ प्रतिमा मिली। आजकल जहाँ चक्रतीर्थ है।  प्रतिमा वहीं मिली थी।

प्रतिमा अपूर्ण थी। राजा ने चारों ओर से कारीगरों को बुला कर उनसे कहा-वे प्रतिमा को पूर्ण आकार दें, पर कारीगरों को सफलता प्राप्त नहीं हुई। कारीगर जब काष्ठ की प्रतिमा पर छेनी चलाते थे तो काष्ठ टूट जाता था।

राजा का मन पुनः दुःख से भर गया। वह भगवान की वन्दना और प्रार्थना करने लगा। भगवान प्रसन्न हुए। वे स्वयं अनन्त महाराणा नामक एक वृद्ध बढ़ई के रूप में राजा के सामने उपस्थित हुए। उन्होंने राजा से कहा, वे मूर्ति को पूर्ण आकार दे देगे, पर जब तक पूर्ण आकार बन नहीं जायेगा,  मूर्ति को कोई देख नहीं सकेगा।

राजा ने बढ़ई-रूप भगवान की शर्त स्वीकार कर ली। बढ़ई एक कमरे के भीतर मूर्ति को पूर्ण आकार देने में लग गया। कई दिनों तक तो खट-खट की आवाज़ आती ही, पर उसके पश्चात् आवाज़ का आना बन्द हो गया। राजा के मन में सन्देह उत्पन्न हो उठा। वह दरवाजा खोलकर भीतर की ओर झाँक कर देखने लगा। राजा के देखते ही भगवान रूपी बढ़ई अदृश्य हो गये और प्रतिमाये अधूरी रह गई। जगन्नाथ और बलराम के दोनों हाथ ऊपर उठे हुए हैं। सुभद्रा की प्रतिमा में अंग नहीं हैं। तीनों प्रतिमाओं को अलग-अलग रथ में रख कर जुलूस के रूप में घुमाया गया।   बस, उसी दिन से प्रति वर्ष रथ यात्रा का मेला लगने लगा। कितने दिनों से यह मेला लगता है।  कुछ कहा नहीं जा सकता, पर ज्यों-ज्यों दिन बीतते जा रहे हैं। श्रद्धा बढ़ती जा रही है।  उत्साह में पख लगते जा हे है।

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