Hindi Essay on “Phoolwalon ki Sair ka Mela – Delhi”, “फूलवालों की सैर का मेला – दिल्ली”, for Class 10, Class 12 ,B.A Students and Competitive Examinations.

फूलवालों की सैर का मेला – दिल्ली

Phoolwalon ki Sair ka Mela – Delhi

दिल्ली भारत की राजधानी है। राजधानी होने के कारण दिल्ली में सभी जातियों, धर्मों और सम्प्रदायों के लोग निवास करते हैं। अतः दिल्ली के मेलों और पर्वो के उत्सवों में भी सभी जाति के लोग भाग लेते हैं। उत्साह और प्रसन्नता प्रकट करते हैं। एकता और बन्धुता का अच्छा दृश्य देखने को मिलता है।

 दिल्ली में दो तरह के मेले लगते हैं। -पुराने मेले और नये मेले। पुराने मेलों में दशहरा, दीवाली और ईद आदि के मेलों का नाम लिया।  जा सकता है।  नये मेलों में फूल वालों की सैर का मेला, 26 जनवरी का मेला, 15 अगस्त का मेला, गाँधी जयन्ती का मेला और बाल दिवस आदि गणना की जा सकती है।  यहाँ हम फूलवालों की सैर के मेले पर प्रकाश डालेगे, क्योंकि यह मेला बड़ा प्रेरक और बड़ा ही आकर्षक है।

फुलवाली की सैर का मेला दिल्ली के पास महरौली में लगता है।  इस मेले में हिन्दू और मुसलमान दोनों ही बड़ी संख्या में एकत्र होते हैं। मुसलमान बख्तियार काकी की मजार पर चादरें और हिन्दू योग माया मंदिर में पखे चढ़ाते हैं। बड़ी भीड़ होती है। शहनाइयाँ बजती हैं, कव्वालिया होती हैं और खेल तमाशे भी होते हैं। एकता और भाई-चार का बड़ा ही आकर्षक रुप देखने को मिलता है।

फलवालों की सैर का मेला कब से और क्यों लगता है। इस सम्बन्ध में एक ऐतिहासिक कहानी प्रचलित है। जो इस प्रकार है।  

मुगल बादशाह अकबर द्वितीय के शासन काल की बात है। एक दिन अंग्रेज रेजीडेंट आर्चवल्ड सीटन अकबर के दरबार में उपस्थित हुआ। उसकी सूरत शल्क को देखकर शाहजादा जहागीर को हँसी आ गई। उसकी हँसी से रेजीडेट चिढ़ गया। उसने कुपित होकर जहाँगीर को इलाहाबाद के किले में नजरबन्द कर दिया।

बेटे की नजरबन्दी से बेगम मुमताज बड़ी दुःखी हुई। उसने बख्तियार काकी की मज़ार पर सिर झुका कर मनौती मानी-यदि उसका बेटा नजरबन्दी से छूट कर सही सलामत लौट आयेगा, तो वह मजार पर फूलों की चादर चढायेगी।

इसलिये जब अंग्रेजों ने उसे छोड़ दिया। वह इलाहाबाद से दिल्ली के लिये चल पड़ा। रास्ते में कई स्थानों में उसका बहुत स्वागत हुआ। ।

मुमताज को जब बेटे की रिहाई का समाचार मिला, तो वह खुशी से नाच उठी। केवल वही नहीं, सारी दिल्ली में हर्ष का सागर उमड़ पड़ा। शाहजादा के आने पर उसकी माँ ने बड़ी धूम-धाम से बख्तियार काकी की मजार पर फूलों की चादर चढ़ाई। वह एक बड़े जूलूस के साथ काकी की मजार पर उपस्थित हुई। बस, उसी समय से हर साल सितम्बर के महीने में वह काकी की मजार पर जाने लगी और फूलों की चादर चढ़ाने लगी।

यद्यपि मेले की नीव मुमताज ने ही डाली थी। पर वास्तविक संस्थापक तो बहादुरशाह को ही कहना चाहिये। बहादुरशाह ने ही उसे मेले का रूप दिया। मेले के पहले सारे शहर में मुनादी की जाती थी और हर एक आदमी से मेले में भाग लेने के लिये कहा जाता था। यही कारण है कि हिन्दू मुसलमान, दोनों बड़ी संख्या में महरौली पहुँच कर मेले में भाग लेते थे।  बहादुरशाह स्वयम अपनी बेगमों के साथ एक भव्य जुलूस के रूप में महरौली जाता था। वह हाथी।    पर सवार रहता था। बेगमें पालकियों में रहती थी। जुलूस के साथ तरह-तरह के बाजे भी रहते थे। लाल किले से लेकर महरौली तक मुगल सिपाही रास्ते के दोनों ओर तलवारें लेकर खड़े रहते थे।

बहादुरशाह बेगमों के साथ मजार पर फूलों की चादर चढ़ाया करता था। बहुत से हिन्दू भी मजार पर फूलों की चादरें चढ़ाते थे। इसी तरह मुसलमान भी फूलों के पंखे

योगमाया के मंदिर में चढ़ाया करते थे। शहनाइयों की ध्वनियों से वातावरण गूंजता रहता था। मुशायरे और कव्वालियाँ भी खूब होती थी।

अंग्रेजों ने जब बहादुरशाह को कैद करके रंगून भेज दिया, तो फूलवालों की सैर का मेला बन्द हो गया। कुछ लोगों का कहना है कि मेले में हिन्दुओं और मुसलमानों की एकता को देख कर अंग्रेज शकित हो उठे थे। उन्होंने मेले को अंग्रेजी शासन के लिये संकट समझ कर बंद करा दिया।

1947 ई० में जब देश स्वतंत्र हुआ।तो लोगों का ध्यान पुनः फूलवालो की सैर के मेले की ओर आकष्ट हुआ। फलतः 1962 ई० में पुनः मेला लगने लगा। मेले में हिन्दू और मुसलमान जनता तो सम्मिलित होती ही है। बड़े-बड़े राजनीतिक नेता और अधिकारी भी सम्मिलित होते हैं। स्वर्गीय श्री नेहरू को इस मेले से बड़ा प्रेम था। वे जब तक जीवित रहे, बड़े प्रेम और उत्साह के साथ मेले में भाग लिया करते थे।

फूलवालों की सैर के मेले को साधारण मेला न कह कर एकता का मेला कहना अधिक उपयुक्त होगा, क्योकि एकता ही दृष्टि से ही इस मेले का आयोजन किया जाता है। यदि इसी प्रकार के और भी मेले लगे, तो एकता की कड़ियों को सुदृढ़ बनाने में अच्छी सहायता मिल सकती है।

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