Hindi Essay on “Kashmir Ke Mele –  Kashmir”, “काश्मीर के मेले – काश्मीर”, for Class 10, Class 12 ,B.A Students and Competitive Examinations.

काश्मीर के मेले – काश्मीर

Kashmir Ke Mele –  Kashmir

 

काश्मीर अपनी सुन्दरता के लिये प्रसिद्ध है।  सुन्दरता के ही कारण उसे भारत का स्वर्ग कहा जाता है।  फलों से लदे हुए हरे-हरे वृक्ष, बर्फ की चादर ओढ़ कर सोई हुई पर्वतों की चोटियाँ, कलकल स्वरों में बहते हुए झरने और मीठे जल वाली नदियाँ किसी भी यात्री के मन को मोहित किये बिना नहीं रहती। प्रायः सभी धर्मों और सम्प्रदायों के अनेक लोग काश्मीर जाते हैं और प्रकृति के द्वारा संवारे हुए काश्मीर को देख कर परम आनन्दित होते हैं।

प्रकृति ने ही नहीं, मनुष्यों ने भी काश्मीर का श्रृंगार करने में किसी प्रकार की कमी नहीं की है।  एक से एक सुन्दर बगीचे काश्मीर में देखने को मिलते हैं। झेलम में शिकारे की सैर या उस पर निवास अपने-आप में बड़ा भव्य होता है।  चित्रकारी, कढ़ाई और नक्काशी के काम भी मन को सम्मोहित कर लेते हैं। मृदुल कंठों से निकले हुए गीत, नृत्य और वाद्यों की ध्वनियों पर मन मयूर की भाँति नाच उठता है।  वेश-भूषा और पहनावे भी मन को खींचे बिना नहीं रहते। बात-चीत में और व्यवहारों में भी रस की मिठास होती है।

काश्मीर में मेले भी खूब लगते हैं और पर्व भी खूब मनाये जाते हैं। सभी मेलों और पर्वो के उत्सवों में प्रायः सभी लोग दिल खोल कर भाग लेते हैं। साथ-साथ नाचते हैं गाते हैं और खाते-पीते हैं। एकता का जैसा अनूठा दृश्य काश्मीर के मेलो और पर्वो के उत्सवों में देखने को मिलता है। वैसा दृश्य दूसरी जगहों में बहुत कम देखने को मिलता है।  यहाँ हम काश्मीर के कुछ प्रसिद्ध मेलों पर प्रकाश डालने का प्रयत्न करेंगे।

जनवरी के प्रथम पक्ष को शीत ऋतु का विशेष पक्ष कहते हैं। बड़े कड़ाके की सर्दी पड़ती है।  सर्दी से जल भी जम जाता है।  पर्वतों पर चारों ओर बर्फ ही बर्फ दिखाई पड़ती है।  जिन दिनों हवा के झोके चलते हैं। ठंड से प्राण तक काँप जाते हैं। जल इतना ठंडा होता है कि दो बूंद भी गले के नीचे उतारी नहीं जाती।

ठंड के इन्हीं दिनों में रैडा-वाणी में एक बहुत बड़ा मेला लगता है।  जिसे बर्फानी मेला कहते हैं। यह मेला उन दिनों लगता है।  जिन दिनों बर्फ का मौसम होता है।  बर्फ के मौसम में लगने के ही कारण इसे बर्फानी मेले के नाम से याद किया जाता है।

बर्फानी मेला प्रसिद्ध दरवेश मियाँशाह की स्मृति में लगता है।  मियाँशाह एक सुप्रसिद्ध फकीर थे। वे अपने जीवन में ही अपनी खूबियों के कारण देवताओं के समान बन गये। वे पैदा तो हुये थे मुसलमान के घर में, पर उनकी दृष्टि में न कोई हिन्दू था, न कोई मुसलमान था। वे सब को केवल इन्सान समझते थे। वे सब को अपने हृदय का प्यार देते थे। यही कारण है कि आज भी सभी धर्मों और सम्प्रदायों के लोग उन्हें अपना पूज्य मानते हैं।

बर्फानी मेले में सभी जातियों, धर्मों और सम्प्रदायों के लोग बड़े उत्साह से भाग लेते हैं। संयोग की बात यह है।  जिस दिन मेला आरंभ होता है, उसी दिन से हिमपात भी आरंभ हो जाता है।  लोग एक साथ मिलकर प्रार्थना करते हैं। पटाखे भी खूब छोड़े जाते हैं। पटाखों के रंगों और आवाजो से वातावरण गूज तो उठता ही है।  रंगीन भी हो जाता है।

दूसरा मेला क्षीर भवानी का मेला है।  क्षीर भवानी एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थल है।  जो श्रीनगर से 21 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।  यहां एक कुंड में भगवती का मंदिर बना हुआ है।  कुंड के जल का रंग बराबर बदलता रहता है।  इसी को भगवती का दर्शन माना जाता है।

प्रत्येक मास की अष्टमी और पूर्णिमा के दिन बहुत बड़ी संख्या में यहाँ लोग एकत्र होते हैं।  और बड़ी श्रद्धा से भगवती की मूर्ति पर पुष्प, चावल और मिष्ठान चढ़ाते हैं। कुंवारी लड़कियों और कुंवारे लड़कों में मंदिर की प्रदक्षिणा करने में होड़ सी लग जाती है।  मेले के दिनों में यहाँ यज्ञ भी होते हैं। के लोगों का ऐसा विश्वास है कि, मंदिर की प्रदक्षिणा करने से मनवांछित जीवन साथी मिलता है।   

यद्यपि तीर्थ हिन्दुओं का है, पर मुसलमान स्त्री-पुरूष सभी मेले में जाते हैं और मंदिर की प्रदक्षिणा करके मन चाहा वर प्राप्त करते हैं।

बनिहाल सुरंग के पास वैरीनाग नामक एक पवित्र स्थान है।  यह स्थान झेलम नदी के तट पर है।  आषाढ़ मास के प्रथम पक्ष में यहाँ बहुत बड़ा मेला लगता है।  उस मेले को वैरीनाग का मेला कहा जाता है।  मेले में सभी जातियों, धर्मों और सम्प्रदायों के लोग  बड़े उत्साह के साथ भाग लेते हैं।

इस मेले के सम्बन्ध में एक लोक कथा। भी प्रचलित है।  झेलम को वितस्ता भी कहते हैं। कहा जाता है वितस्ता देवी वैरीनाग से ही प्रकट होना चाहती थी पर वैरीनाग शिवजी का स्थान था। इसलिये वे वहाँ से प्रकट न होकर एक मील दूर बुन्ना से प्रगट हुई। इसीलिये उस सोते को बिरही सोता भी कहते हैं।

काश्मीर में इसी प्रकार के और भी मेले लगते हैं। जिनमें एकता और बन्धुता का अनुपम दृश्य देखने को मिलता है।  जिन मेलों में एकता और बन्धुता का दृश्य मिलता है।  उनमें एक मेला हज़रतबल का मेला भी है।  डलझील के किनारे नगीना नामक स्थान में यह मेला लगता है।  यहां हजरत मुहम्मद साहब का बाल रखा हुआ है।  प्रति शुक्रवार के दिन यहां बहुत से मुसलमान एकत्र होते हैं और हजरत मुहम्मद साहब के बाल का दर्शन करके अपने मनोरथ को सफल समझते हैं।

ईद, बकरा ईद और शबरात आदि पर्वो के अवसरों पर बहुत बड़ा मेला लगता है।  लाखों मुसलमान एकत्र होते हैं। तरह-तरह की दुकानें भी लगती हैं। मेले में बड़ी चहल-पहल रहती है।

हजरत मुहम्मद साहब का बाल पहले बीजापुर में था। 1700 ई० में ख्वाजा नूरूद्दीन उस बाल को बीजापुर से श्रीनगर में लाये थे। उसी समय से हजरत बाल का मेला लगने लगा था। काश्मीर की सरकार इस पवित्र स्थान को अधिक से अधिक सुन्दर बनाने का प्रयत्न कर रही है।

एकता और बन्धुता का एक और बहुत बड़ा मेला काश्मीर में लगता है।  यह मेला तरार गांव में लगता है।  जो श्रीनगर से 27 किलोमीटर दूर है।  सुप्रसिद्ध सूफी संत शेख नूरूद्दीन इसी गांव में रहते थे। वे उच्च कोटि के सन्त थे। सभी धर्मों और सम्प्रदायों में खुदा को ही देखते थे। वे मानव मात्र को प्यार करते थे। उन्हीं की पवित्र याद में मेला लगता है।  

हिन्दू और मुसलमान-दोनों बहुत बड़ी संख्या में मेले में भाग लेते हैं। मेला हफ्तों तक लगा रहता है।  मेले में कव्वालियों, गीत, भजनों और पदों की बड़ी बहार रहती है।  एकता, प्रेम और उत्साह का बड़ा अनूठा दृश्य देखने को मिलता है।  ऐसा दृश्य देखने को मिलता है कि, और सब कुछ भूल जाता है।

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