Hindi Essay on “Karat Karat Abhyas ke Jadmati hot Sujaan”, “करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान”, for Class 10, Class 12 ,B.A Students and Competitive Examinations.

करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान

Karat Karat Abhyas ke Jadmati hot Sujaan

निबंध नंबर :01

० सूक्ति का अर्थ ० प्रकृति से उदाहरण अभ्यास का महत्त्व ० इतिहास से उदाहरण

निरंतर अभ्यास से मूर्ख ज्ञानी बन जाता है, अनाड़ी समझदार, चतुर, कुशल, सिद्ध, प्रवीण तथा सुविज्ञ बन जाता है। जैसे बार-बार रस्सी के आने-जाने से कुएँ की कठोर शिला पर भी निशान पड़ जाते हैं और पाषाण घिसकर चूर्ण में परिवर्तित हो जाता है। जो कलाकार हैं वे महानता को वरते हैं तथा सिदध पुरुष बनकर गरुत्व की दीप्ति के चमक उठते हैं। प्रत्येक क्षेत्र में सफलता प्राप्त करने के लिए निरंतर अभ्यास की आवश्यकता होती है। कोई भी व्यक्ति जन्म से प्रतिभाशाली नहीं होता। सतत् अभ्यास से जो व्यक्ति अंतः शक्तियों को विकसित कर लेता है, वही महानता का वरण करता है।

करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।

रसरी आवत-जात ते, सिल पर परत निसान।।

संसार में जितने भी महान विचारक एवं सफल व्यक्ति हुए हैं, उनकी सफलता का रहस्य उनके अभ्यास में निहित रहा है। जिन लेखका, विचारकों का हम आदर करते हैं, निष्ठा के साथ पढ़ते हैं तथा जिनसे मानवता उत्पन्न हुई है, उन्होंने अपनी रचनाओं को निखारने के लिए बार-बार अभ्यास किया है। बार-बार लिखा, काटा और फिर लिखा । प्लेटे ने अपनी पुस्तक ‘रिपब्लिक’ के प्रथम वाक्य को नौ प्रकार से लिखा तब कहीं जाकर उस वाक्य को अंतिम रूप प्रदान कर सके।

 

गिरते हैं शहसवार ही मैदाने जंग में।

वे क्या कभी गिरे हैं, जो घुटनों के बल चले।

अभ्यास कभी निरर्थक नहीं जाता। महाकवि कालिदास अत्यंत मूर्ख थे, किंतु अभ्यास ने उन्हें महान कवि एवं लेखक बना दिया। महर्षि वाल्मीकि व्याध से महाकवि बने, इसके पीछे उनकी कठोर साधना ही थी। प्राचीन काल में लोग तप किया करते थे। यह तप भी अभ्यास का ही एक रूप था। रावण ने घोर तपस्या करके ब्रहमा से वरदान प्राप्त किया था। अर्जुन ने कठिन तपस्या करके देवराज इंद्र से अमोघास्त्र प्राप्त किया तथा अभ्यास एवं कठिन साधना के बल पर भीष्म पितामह ने मृत्यु को भी अपना दास बना लिया।

 

निबंध नंबर :02

करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान 

Kart Kart Abhiyaas ke Jadmati Hot Sujan

प्रसिद्ध कवि वृन्द जी का नीति सम्बन्धी एक दोहा है-

करत करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान।

रसरी आवत-जात ते, सिल पर परत निसान ॥

उपर्युक्त दोहे का भाव यह है कि जिस प्रकार कुएं की जगत् के पत्थर पर कोमल रस्सी की बार-बार रगड़ से निशान पड़ जाता है अर्थात् पत्थर घिस जाता है उसी प्रकार निरंतर अभ्यास करते रहने वाला मूढ़ व्यक्ति भी एक न दिन सुजान अर्थात् पंडित हो जाता है। कवि के कहने का तात्पर्य यह है कि निरंतर अभ्यास वही व्यक्ति कर सकता है जिसमें परिश्रम करने की लग्न होती है। परिश्रम और अभ्यास मिल कर किसी व्यक्ति को जीवन में सफलता दिलाने में सहायक होते हैं। संसार में जितने भी विख्यात, कवि, गायक मूर्तिकार, चित्रकार इत्यादि हुए हैं वे ख्याति की चोटी पर एक ही दिन में नहीं पहुँचे उन्हें अपनी कला की साधना में निरंतर अभ्यास करना पड़ा। संगीत के विद्यार्थी इस बात को अच्छी तरह से समझते हैं। यदि वे निरंतर अभ्यास न करें तो वे कुछ भी न सीख पाएँ। आम जीवन में भी हमें कभी किसी वकील, डॉक्टर अथवा इंजीनियर की आवश्यकता होती है तो हम सदा यही चाहते हैं कि हम किसी अनुभवी डॉक्टर, वकील या इंजीनियर की सेवाएं प्राप्त करें। क्योंकि उन लोगों के निरन्तर अभ्यास के कारण उनमें जो विशिष्ट गुण आ गए होते हैं बस उन्हीं की कदर है। जिन लोगों के पास अपने वाहन हैं-स्कूटर, कार इत्यादि, वे भली प्रकार जानते हैं कि जब भी उन्हें अपने वाहन की मुरम्मत करवानी होती है वे अधिक महंगा होने पर भी किसी ऐसे मकैनिक की सेवाएं प्राप्त करना चाहते हैं जिसके पास निरन्तर अभ्यास से प्राप्त अनुभव होता है। कहना न होगा कि निरन्तर अभ्यास से ही व्यक्ति में निपुणता आती है। सभी जानते हैं कि पत्थर में आग होती है। और तिलों में तेल किन्तु न तो पत्थर से आग एकदम निकलती है, उसे निरंतर रगड़ना पड़ता है, और न ही तिलों से तेल एकदम निकलता है कि निचोड़ा और निकाल लिया, उन्हें तो कोल्हू में डाल कर निरंतर पीड़ना पड़ता है, रगड़ना पड़ता है। ठीक इसी प्रकार सामान्य बुद्धि वाला व्यक्ति अपनी बुद्धि को निरंतर रग़ड़ता रहे तो एक दिन पंडित हो जाता है। महाकवि कालिदास का उदाहरण हमारे सामने है। विद्यार्थी जीवन में तो अभ्यास का बहुत महत्त्व है। किसी भी विषय में अच्छे अंक प्राप्त करने के लिए उसे निरंतर अभ्यास की आवश्यकता है। सफलता के लिए अभ्यास और परिश्रम दोनों ही अत्यावश्यक है।

 

 

निबंध नंबर :03

 

करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान

Karat Karat Abhyas ke Jadmati Hot Sujaan

किसी कार्य को स्वभाववश निरन्तर करते रहने की क्रिया का नाम ही ‘अभ्यास है। जब कोई मनुष्य किसी कार्य में दक्ष हो जाता है या किसी विषय का विशेषज्ञ हो जाता है तो वह अपने कार्य को बड़ी एकाग्रता, लगन और दत्तचित्त होकर करता है। इसी का नाम अभ्यास है।

निरन्तर अभ्यास करते रहने से मूर्ख से मूर्ख और अनाड़ी व्यक्ति भी समझदार, कुशल, सुविज्ञ या कार्य में प्रवीण हो जाता है।

जब किसी लकड़ी को बार-बार रगड़ा जाता है तो उसमें से ऊष्मा या आग पैदा हो जाती है, प्रतिदिन तीव्र वेग से बहने वाली नदियाँ चट्टानों को भी तोड़ डालती हैं। जब लगातार धरती को खोदा जाता है तो उसमें से पानी निकल आता है, पत्थर को भी बार-बार घिसने से उसका चूर्ण बन जाता है। इस प्रकार कौनसी ऐसी वस्तु अथवा अवस्था है, जिसे निरन्तर अभ्यास के जरिए प्राप्त नहीं किया जा सकता।

गीता में कहा गया है कि अभ्यास से चित्त की वृत्तियों का निरोध होता है और चंचल मन वश में होता है। इस प्रकार से वश में हुआ मन अभ्यास में प्रवृत्त रहता है, जिससे आत्मबल की प्राप्ति होती है। आत्मबल प्राप्त होना ही मनुष्य की सफलता का सूचक है।

योगवाशिष्ठ में कहा गया है-

निरन्तर अभ्यास से मनुष्य किसी भी विषय का ज्ञाता बन जाता है।”

सन्त ज्ञानेश्वर का कथन है-

अभ्यास से कुछ भी सर्वथा दुष्प्राप्य नहीं है।

संत तुकाराम कहते हैं-

अभ्यास के बिना साध्य की प्राप्ति हो-यह सम्भव नहीं है।

पातंजल मुनि ने अभ्यास के सम्बन्ध में अपने योग-दर्शन में कहा है-

तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यासः

अथति किसी प्रकार की स्थिति के लिए प्रयत्न करने का नाम ‘अभ्यास कहा जाता है।

यदि अभ्यास न किया जाएगा तो कोई भी विद्या, कला अथवा योग्यता विष की तरह बन जाएगी।

अनभ्यासे विषं विद्या

अर्थात् अभ्यास के बिना विद्या विष की तरह है।

यदि नर्तक लोग, संगीतज्ञ और गायक लोग अपनी अपनी कला का अभ्यास करना छोड़ दें तो वह कला उनको छोड़ देगी। कोई पहलवान चाहे कितना भी बलिष्ठ क्यों न हो–यदि वह अखाड़े में पहलवानी का अभ्यास करना छोड़ देगा। तो एक दिन कुश्ती में अवश्य हारेगा। कोई विद्यार्थी चाहे पढ़ाई में कितना ही होशियार तथा बुद्धिवान क्यों न हो-यदि वह घर पर रोजाना विद्या का अभ्यास नहीं करेगा तो परीक्षा में अवश्य ही अनुत्तीर्ण या असफल हो जाएगा।

यदि किसी कार्य का (छोटे या बड़े पैमाने पर) अभ्यास किया जाता है तो वह अभ्यास कभी भी निष्फल या निरर्थक नहीं जाता। अभ्यास के जरिए मनुष्य के अन्दर प्रतिभा अथवा योग्यता प्राप्त होती है। वह योग्यता मनुष्य के कार्यों में जीवनभर मदद करती है।

इस संसार में दो प्रकार के मनुष्य रहते हैं। पहले प्रकार के मनुष्य तो पूर्व जन्मों से ही किसी प्रकार की प्रतिभा के संस्कार लेकर पैदा होते हैं जबकि दूसरे प्रकार के लोगों के अन्दर जन्मजात प्रतिभा नहीं होती। वे सतत अभ्यास के जरिए । प्रतिभा को अपने अन्दर पैदा कर लेते हैं।

श्री जयदयाल गोयनका अपनी गीता तत्त्वविवेचनी में अभ्यास के सन्दर्भ में कहते हैं-

 “अपने मन को किसी लक्ष्य विशेष में तदाकार करने के लिए उसे अन्य विषयों से हटाकर उस विषय में लगाए जाने के प्रयत्न का नाम ही ‘अभ्यास कहलाता है।”

निरन्तर अभ्यास के बल पर जड़मति या मूर्खदि मनुष्य जान या बुद्धिवान जाता है। जो सुजान होता है, वह सतत अभ्यास से किसी विषय क्षेत्र में पारंगत हो जाता है तथा जो विषय पारंगत है वह कलाकार बन जाता है। अभ्यास के जरिए कलाकार व्यक्ति अपनी कला में सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं।

बोधिचर्यावतार के अनुसार-“ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जो अभ्यास के जरिए प्राप्त नहीं की जा सके।”

पाश्चात्य विद्वान् बेकन मानते हैं-

“मनुष्य के अन्दर बुद्धि का ऐसा कोई दोष नहीं है, जिसे अभ्यास के द्वारा दूर नहीं किया जा सके।”

कालिदास कितने महामूर्ख थे। उनकी विदुषी पत्नी ने जब उनकी मूर्खता को जाना, तब उन्हें घर से निकाल दिया था। इसके बाद कालिदास ने विद्या का सतत अभ्यास किया और एक दिन संस्कृति साहित्य के सबसे बड़े महाकवि बन गए।

इसी प्रकार महर्षि वाल्मिकी भी अपने युवाकाल में मूढ़मति डाकू थे। नारद जी द्वारा आत्मप्रेरणा देने से उनके अन्दर आध्यात्मिक जागृति आई और वे राम के नाम का उल्टा जाप करते-करते परमज्ञानी बन गए।

पुराने जमाने में हमारे देश के ऋषि-मुनि लोग गुफाओं कन्दराओं में बैठकर तप का अभ्यास किया करते थे। इस तरह की तप साधना से उन्हें अपने इष्ट की प्राप्ति होती थी। अपने मन को वश में करके उसे सिद्धि की ओर एकाग्र करना ही ‘तप’ कहलाता है। तप अथवा अभ्यास के बिना आध्यात्मिक प्रगति होना असम्भव है।

यह कहना गलत है कि निरन्तर किसी काम का अभ्यास करते-करते व्यक्ति नीरसता को पाता है। जो अभ्यास रुचिपूर्वक एवं एकाग्रमन से किया जाता है, उस अभ्यास से कभी किसी काम में उकताहट पैदा नहीं होती। सच्चा अभ्यास कार्य में आनन्द पैदा करता है। एक-दो महापुरुषों के उदाहरण लें।

बोपदेव शुरू-शुरू में मूर्ख और बुद्धिहीन प्रकार के मनुष्य थे। वे रोजाना गाय चराया करते थे। एक दिन वे किसी कुएँ के पास बैठे थे। उन्होंने देखा कि कुएँ की शिला पर बार-बार पानी का घड़ा रखने से निशान पड़ गया है। बोपदेव ने सोचा कि जब मिट्टी के घड़े से कठोर पत्थर पर निशान अंकित हो सकता है तो उनकी जड़बुद्धि में ज्ञान कैसे नहीं आ सकता। फलस्वरूप संस्कृत और प्राकृत साहित्य के व्याकरण का अध्ययन करना शुरू किया। एक दिन यही बोपदेव अपने विद्याभ्यास के बल पर संस्कृत और प्राकृत व प्रकाण्ड विद्वान बने। जिन्होंने ‘प्राकृत सर्वस्वसार’ नाम का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ लिखा।

वैज्ञानिक न्यूटन अपने प्रयोगों में इतने तल्लीन एवं आनंदित रहते थे कि । कभी-कभी भोजन करना ही भूल जाते थे। एक दिन वे अपने किसी प्रयोग में व्यस्त थे। नौकरानी खाना रखकर चली गई और कह गई कि भोजन कर लेना। लेकिन न्यूटन ने उसकी ओर ज्यादा ध्यान नहीं दिया। तभी एक कुत्ता आकर उनका खाना खा गया। प्लेट में केवल जानवर की हड्डियाँ शेष रहीं। जब न्यूटन को अपने प्रयोग से थोड़ी फुर्सत मिली तो उन्होंने देखा-प्लेट में हड्डियाँ पड़ी हैं। उन्होंने सोचा कि शायद मैंने भोजन कर लिया है, और फिर अपने प्रयोग में तल्लीन हो गए।

शिक्षा और कला-दो ऐसी चीजें हैं जो अभ्यास के जरिए ही आती हैं। अभ्यास सिद्धि का साधन है। यह मनुष्य को विकास का मार्ग दिखलाता है। अभ्यास से सोई हुई प्रतिभा जाग्रत होती है, व्यक्ति को धन, ऐश्वर्य एवं यश की प्राप्ति होती है। निरन्तर अभ्यास के सन्दर्भ में कहा गया है-

करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।

रस्सी आवत-जात तें सिल पर पड़त निसान।

 

 

 

निबंध नंबर :04

करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान

Karat Karat Abhyas ke Jadmati Hot Sujaan

पल्लवन-मानव जीवन में उन्नति करने के लिए जहाँ अनेक गुणों की आवश्यकता पड़ती है, वहीं सतत अभ्यास भी नितांत आवश्यक है। सतत अभ्यास के बल पर ही अल्पज्ञ भी सूविज्ञ, मूर्ख भी पंडित तथा अकुशल भी कुशल बन सकता है। निरंतर अभ्यास का प्रभाव ही ऐसा है कि कठिन से कठिन कार्य भी सुगम हो जाता है। आज संसार में विज्ञान ने जो अद्भुत सफलताएँ प्राप्त की हैं. उनके पीछे भी मानव का निरंतर अभ्यास और परिश्रम ही है। जिस प्रकार कुएँ से बार-बार पानी खींचने वाली कोमल रस्सी कठोर पत्थर पर भी अपना निशान डाल देती है, वैसे ही अभ्यास के बल पर असंभव को भी संभव बनाया जा सकता है।

 

 

निबंध नंबर :05

करतकरत अभ्यास के जड़मति होत सुजान

Karat-Karat Abhyas ke Jadmati Hot Sujan

 प्रतिदिन निरन्तर अभ्यास करने से मूर्ख व्यक्ति भी समझदार बन जाता है। बार-बार अगर सिल पर रस्सी रगड़ी जाती है तो सिल पर निसान पड़ जाते हैं। निरन्तर रगड़ने से काठ में आग निकल जाती है। निरन्तर बहने वाली नदियाँ चट्टानें फोड़ कर रास्ता निकाल लेती हैं। बट्टे की रगड़ से पत्थर की सिल चिकनी हो जाती है। पत्थर भी प्रतिदिन घिसता-घिसता एक दिन चूर्ण बन जाता है। निरंतर अभ्यास करने से मूर्ख कलाकार बन जाता है। जो सिद्ध कलाकार हैं वे सिद्ध गुरु की दीप्ति से चमक उठते हैं। योग वशिष्ठ में कहा गया है कि निरन्तर अभ्यास से किसी विषय का अज्ञ उस विषय का ज्ञाता हो जाता है। बोधिचर्यावतार में भी यही बात कही गई है,” कोई ऐसी वस्तु नहीं, जो अभ्यास करने पर दुष्कर है।” बेकन ने कहा है, ” मनुष्य मात्र में बुद्धिगत ऐसा दोष नहीं है जिसका प्रतिकार उचित अभ्यास के द्वारा न हो सकता हो।” संत ज्ञानेश्वर कहते हैं, अभ्यास से कुछ भी सर्वथा दुष्प्राप्य नहीं है।’

अभ्यास कभी बेकार नहीं जाता। यह कभी निष्फल नहीं होता। इसका कारण यह है कि अभ्यास से प्रतिभा उत्पन्न होती है। संकृत के वैयाकरण बोपदेव पहले मूर्ख थे, पढ़ने में मन नहीं लगता था। आरम्भ में गाएँ चराने का काम करते थे। एक दिन कुएँ पर मिट्टी के घड़े द्वारा पत्थर पर पड़े गड्ढे को देखकर प्रेरणा जगी। पढाई में लग गए और विद्वान् बन गए। यह अभ्यास के

कारण है। इसी प्रकार महाकवि कालिदास के बारे में प्रसिद्ध है। वे भी प्रारम्भ में मूर्ख थे। पत्नी का मूर्ख कहना उन्हें चुभ गया। _ विद्या का अभ्यास किया और विश्वप्रसिद्ध विद्वान बने।

निरन्तर अभ्यास कभी नीरस नहीं होता। एकाग्रचित्तता से कभी अभ्यास में उकताहट नहीं आती। अभ्यास आनंद का स्रोत है। इसलिए एक कवि ने सत्य ही कहा है

करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।

रसरी आवत जात ते सिल पर परत निसान।।

2 Comments

  1. Ashwini Gunasekaran June 3, 2019
  2. Taazim February 6, 2020

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