Hindi Essay on “Jeevan Aur Sahitya ”, “जीवन और साहित्य”, Hindi Nibandh for Class 10, Class 12 ,B.A Students and Competitive Examinations.

जीवन और साहित्य

Jeevan Aur Sahitya 

जीवन एक गहरा सागर है और साहित्य इस गहरे सागर का अवलोकन करता है। किसी सागर का अवलोकन किस प्रकार किया जाए, यह सभी साहित्यकारों का अलग-अलग दृष्टिकोण है। यदि किसी का दृष्टिकोण आदर्शपूर्ण, अनुरागी, प्रकाशवान, संवेदनशील और अनुकरणीय है तो वही ‘उत्कृष्ट साहित्य’ कहलाता है। वहीं दूसरी तरफ यदि किसी का दृष्टिकोण संकुचित, ठहरा हुआ, ग़मगीन, अश्लील व अभद्र है तो वह ‘निकृष्ट साहित्य’ कहलाता है।

साहित्य जीवन का ही एक दर्पण है। हमारी पृथ्वी पर सैंकड़ों व्यक्ति जीवन जी रहे हैं। इन सभी कि अपनी-अपनी मान्यताएँ, स्वाभिमान, अपने-अपने लक्ष्य, अपनी-अपनी ताकतें और कमजोरियाँ हैं। यही सब चीजें जब लिखित रूप ले लेती है, तो वह साहित्य बन जाता है। साहित्य एक प्रभावकारी माध्यम है जिसमें कविता, उपन्यास, कहानी, नाटक और लेख सब कुछ विद्यमान होते हैं। यह सारे मिलकर जीवन को संक्षेप में बताते हैं। यह एक तरफ तो जीवन को मूल्यवान बनाते हैं और दूसरी तरफ इसके महत्व से मनुष्य के जीवन की उपलब्धियों के बारे में बताते हैं कि अपने जीवन के मूल्य के अनुरूप उसने क्या-क्या पा लिया है।

साहित्य एक अभिव्यक्ति है और जीवन के अनुभव ही इस अभिव्यक्ति का स्रोत है। जो जीवन महसूस नहीं कर सकता और महसूस करने के बाद किसी प्रकार की अभिव्यक्ति नहीं कर सकता। साहित्य में जीवन की वास्तविक भावनाओं और आकांक्षाओं का आधार होता है और ये सारी भावनाएँ प्रत्यक्ष रूप में पाठकों द्वारा पढी व महसस की जाती हैं। यह साहित्य की बहुत बड़ी उपलब्धि है कि वे हमेशा से वास्तविकता पर झुका रहेगा। यह झुकाव ही साहित्य की सबसे महत्वपूर्ण देन है। यह साहित्य का फायदा भी है कि वह हमें जीवन की वास्तविकताओं के नजदीक ले जाता है।

परन्तु साहित्य की यही देन उसकी असफलता का भी कारण बना है। क्योंकि आज संसार की स्थिति यह हो गई है कि मनुष्य वास्तविकता में क्या है? यह उसके अंतर्मन को भी नहीं मालूम है, और तो और यदि उसको मालूम भी है तो वह उससे दुर्भाग्यवश इतनी दूर निकल चुका है कि यदि वह वास्तविकता उसके सामने आती भी है तो भी उसे स्वीकार करने का साहस नहीं है। कुछ लोग ऐसे हैं जो भौतिकता और सामाजिक व्यवहारिकता में इतना तल्लीन हो गए हैं कि उनकी नजरों मे अपनी स्वयं की वास्तविकता की कोई अहमियत नहीं रह गई। ये सारी स्थितियाँ हमारे विश्व की मानवता की रक्षा के अंतर्गत नहीं इस्तेमाल की जा सकती।

व्यक्ति की वास्तविकता उसके स्वयं के लिए ही नहीं वरन् पूरे समाज, पूरे राष्ट्र और पूरे विश्व के लिए जरूरी होती है। उसकी वास्तविकता उसे आत्मज्ञान की तरफ ले जाती है। जिससे उसमें आत्मनिर्भरता आती है। वह जीवन को जीवन के ही रंगों जैसे कि दया, करुणा, त्याग, शौर्य, सेवा और तपस्या में ही देखती है।

जीवन के रंगों को देखने से मनुष्य के अंदर जीवन के प्रति प्रेम उत्पन्न हो जाता है। जीवन से प्रेम होने के कारण मानव जीवन की सारी उपलब्धियाँ और आनंद दुगुने-तिगुने मजे के साथ महसूस कर सकते हैं।

यह कोई शोर मचाने वाली और शोर-गुल तक ही सीमित नहीं होती, इसका दायरा बहुत विशाल और गहरा होता है। ऐसी सच्चाई को महसूस करने वाले व्यक्ति के मन में नम्रता का वास होता है। उसका मुख ओजस्वी होता है, वह कुछ भी बोलकर बहुत कुछ सीखा जाता है। उसका सिर्फ कहीं पर प्रत्यक्ष होना ही लोगों पर प्रभाव डाल जाता है। ऐसे प्रभावकारी व्यक्ति साहित्यिक ही होते हैं।

अब जीवन क्या है? जीवन साहित्य को रचने वाली कलम है। जीवन अनुभवों से परिपूर्ण लेखा-जोखा है। जिसको हम यदि अपने शब्दों में सच्चाई से महसूस की हई बातों को लिखें तो वही व्याख्या किसी भी साहित्य की होगी।

साहित्य में हर काल से संबंधित बातें होती है, चाहे वह प्रेम हो, चाहे, परोपकार, चाहे महानता या त्याग, देशप्रेम हो या इच्छा-आकांक्षा ही क्यों न हो। मानव जीवन के हृदय की गाथा आदि को साहित्य ही कहा जाता है। ‘विवेकशील’ संज्ञा से उच्चारित प्राणी मानव ही साहित्य का आधारभूत विषय है। साहित्य को ‘समाज का दर्पण’ ‘समय का प्रतिबिंब’ और ‘गूंगे इतिहासकार का सहोदर’ भी कहा जाता है। इसका जीवन के साथ अटूट संबंध है और हमेशा रहेगा। साहित्य की मूल प्रवृत्तियों की विवेचना करते समय जीवन के साथ बाह्य प्रकृति के संबंध को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। रामचंद्र शुक्ल अपने निबंध ‘कविता क्या है?’ में स्पष्टतया लिखते हैं कि ‘नरत्व की बाह्य और अंत: प्रकृति के नाना संबंध और पारस्परिक विधानों का संकलन या उद्भावना ही काव्यों में अधिकतर पायी जाती है।’ इस बात से निष्कर्ष निकलता है कि जीवन साहित्य के लिए जरूरी है।

उत्कृष्ट साहित्य में उच्च, नैतिक एवं कल्याणकारी जीवन-मूल्य समाहित होते हैं। संस्कत के कवि कालिदास ने लिखा है ‘शरीरमाधं खलु धर्मसाधनम।’ अर्थात शरीर ही किसी भी कार्य का साधन है। साहित्य का शरीर के साथ भी संबंध है। शरीर भी गर्मी, ठंडक और वेदना आदि महसूस करता है। उसके मन में भिन्न-भिन्न संवेदनाएँ उत्पन्न होती है। मनुष्य के अनुभव के साथ उसके स्वभाव में भी परिवर्तन होता है। मन के स्वभाव में होने वाला यह प्रभावकारी परिवर्तन उद्दीपन कहलाता है। मानव शरीर एक यंत्र है, जो मन मस्तिष्क से संचालित होता है। मन के संयोग से ज्ञानेन्द्रियां विषय को ग्रहण करती हैं और उसके शरीर में रासायनिक पदार्थ का निर्माण होता है।

परन्तु जिस तरह पूरी दुनिया में हर एक विषय दो या तीन विषयों में बँटा रहता है उसी प्रकार साहित्य के संदर्भ में विद्वानों में भी दो मत है। एक मत के विद्वानों के अनुसार साहित्यिक रचनाओं को यथार्थवादी होना चाहिए और दूसरे वर्ग के अनुसार साहित्य को आदर्शवादी होना चाहिए। विद्वानों का एक ऐसा वर्ग भी है जो यथार्थवाद और आदर्शवाद को साथ-साथ लेकर चलना चाहता है। यथार्थवादियों की साहित्य के संबंध में यह तर्कपूर्ण अभिव्यक्ति है कि जीवन में निराशा, पाप और कष्ट का साम्राज्य होता है। तो जीवन की इस स्थिति में आशा, पुण्य और सुख का चित्रण अस्वाभाविक-सा ही प्रतीत होता है।

दूसरी ओर, आदर्शवादी यह बात प्रकट करते हैं कि जीवन में न केवल निराशा, पाप और कष्ट का साम्राज्य होता है अपितु उसमें आशा और पुण्य का भी समावेश होता है। आदर्श न तो प्राकृतिक है और न ही अप्राकृतिक। वस्तुतः प्रत्येक मनुष्य की कुछ इच्छाएँ होती हैं और वह उन इच्छाओं को प्रतिफलित होते देखना चाहता है। इच्छा की चेतना का पुंज ही आदर्श है। ऐसे में यदि केवल यथार्थ को अपनाया जाए, तो साहित्य हित का साधक न होकर हित का घातक बन जाएगा। यदि किसी मनुष्य के जीवन में दु:ख और निराशा है, और उसे परिवार या समाज द्वारा भविष्य में सुख और आशा का भरोसा न दिलाया जाए और कह दिया जाए तू जीवन भर ऐसा ही रहेगा, तो वह मनुष्य किस प्रकार अपना जीवन व्यतीत करेगा, यह सहज ही समझा जा सकता है।

समय परिवर्तनशील है और समय के साथ मनुष्य के प्राकृतिक नियम होने ही चाहिए। समय के साथ जीवन और जीवन के कारकों के स्वभाव में पूर्ण-परिवर्तन होता है। यदि साहित्य नहीं होता तो हम ऐतिहासिक सभ्यताओं की जानकारी हासिल नहीं कर पाते और न ही यह जान सकते थे कि मानव जीवन में किस प्रकार परिवर्तन आया है। प्राचीन काल में भारत की सभ्यता एवं संस्कृति अत्यंत समृद्ध थी और इसे ‘जगदगुरु’ माना जाता था। किंतु वर्तमान में यही भारत विकासशील की श्रेणी में है। मध्यकाल में मुस्लिमों तथा आधुनिक काल में अंग्रेजों के प्रभुत्व के कारण भारतीय जनता की आत्मा सो गई थी।

उस समय के कवियों और समाज सुधारकों, जैसे- रविंद्रनाथ टैगोर. समित्रानंदन पंत, मैथलीशरण गुप्त, रामधारी सिंह ‘दिनकर’ और रामचंद्र शक्ल ने ऐसे-ऐसे काव्यों, उपन्यासों और नाटकों की रचना की जो देशप्रेम और शौर्य से परिपूर्ण थे। जिससे समस्त भारतीय जनता जागरूक हो उठी और अंततः भारत ने स्वतंत्रता प्राप्त कर ली।

साहित्य की मदद से साहित्यकारों ने कई सारी सामाजिक बुराइयों और कप्रथाओं का भी खंडन किया। जिनमें छुआछूत जैसी कुत्सित प्रथा भी विद्यमान थी। हमारे समाज सुधारकों ने उस समय ‘अतिथि देवो भव’, ‘एक सत् विप्राः बहुधा वर्दान्त’, ‘वसुधैव कुटुंबकम’, ‘यत्र नारयाः पूज्यते रमन्ते तत्र देवताः’ आदि प्राचीन साहित्यिक मान्यताओं का उदाहरण देकर ही लोगों में आपसी प्रेम, भाईचारा, अनुशासन आदि देने की कोशिश की। उन्होंने नारियों को देवी, शक्ति तथा सृष्टि का प्रतीक बताते हुए उनके साथ हो रहे अत्याचारों को रोकने की कोशिश की। साहित्य ने इस प्रकार स्वाधीनता दिलवाने में तो सहायता की उसने सामाजिक पुर्नस्थापना में भी अभूतपूर्व योगदान दिया।

एक परंपरागत भारतीय मान्यता है कि ‘प्रत्येक बुरे विचार का परिणाम बुरा ही होता है’, और यह मान्यता साहित्य के साथ पूरी तरह समाहित है, क्योंकि साहित्य में यदि बुरे विचारों का समावेश होगा, तो उससे तत्कालीन सभ्यता पतन प्रकट होगा और भविष्य में भी मानव जीवन पर उसका प्रभाव बुरा ही पड़ेगा। साहित्य के विषय में एक बात का ध्यान हमेशा रखना चाहिए कि सत्यता, दृढ़ता और प्रसन्नता आदि जैसे विचारों से मनुष्य के शरीर में पौरुष, सौन्दर्य तथा शक्ति की वृद्धि होती है।

हिन्दी के एक रचनाकार ने कहा है, “साहित्य को हमें उच्चादर्श की उस कसौटी पर देखना चाहिए, जहाँ से हम यह कहने की स्थिति में हों- ‘पश्च देवस्य काव्यं न ममार न जीर्यति।” जयशंकर प्रसाद ने कहा है कि – “जीवन की अभिव्यक्ति यथार्थवाद है और अभावों की पूर्ति आदर्शवाद।” साहित्य की पूर्णता के लिए यथार्थवाद और आदर्शवाद दोनों का समन्वित रूप आवश्यक है।

यथार्थवाद और आदर्शवाद एक-दूसरे के पूरक हैं प्रतिद्वंदी नहीं, क्योंकि मानवता में दुर्बलता और महानता दोनों ही चीजें होती हैं, दुर्बलता को दूर करने के लिए आदर्शवाद की आवश्यकता है, जबकि महानता को प्रकट करने के लिए उसे सिद्ध करने के लिए यथार्थवाद की आवश्यकता होती है। अतः जीवन साहित्य का आधार है और हमेशा रहेगा।

Leave a Reply