Hindi Essay on “Jab Aave Santosh Dhan, Sab Dhan Dhuri Saman”, “जब आवे सन्तोष धन, सब धन धूरि समान”, for Class 10, Class 12 ,B.A Students and Competitive Examinations.

जब आवे सन्तोष धन, सब धन धूरि समान

Jab Aave Santosh Dhan, Sab Dhan Dhuri Saman

आदमी को चाहे कितना भी रुपया पैसा मिल जाए लेकिन उसका मन कभी तृप्त नहीं होता। वह दो से चार, चार से छह और छह से आठ रुपए बनाने के चक्कर में लगा रहता है। यहाँ चार रुपए से मतलब चार हजार, छह रुपए से मतलब छह हजार तथा आठ रुपए से मतलब आठ हजार समझना चाहिए।

सारी जिन्दगी व्यक्ति 99 के फेर में ही पड़ा रहता है लेकिन उसके 100 रुपए कभी पूरे नहीं होते। यदि कोई व्यक्ति दो हजार रुपया महीना कमाता है। तो वह चाहेगा कि कम-से-कम तीन हजार या चार हजार रुपए की आमदनी हो और जब उसे तीन या चार हजार रुपए मिलने लगते हैं-तब वह सोचता है कि 5 हजार या सात हजार रुपए मासिक में उसका गुजारा अच्छी तरह चल सकता है। इसी तरह सहस्रपति व्यक्ति लखपति बनने की इच्छा मन में रखता है और लखपति व्यक्ति करोड़पति बनने की इच्छा रखता है। करोड़पति आदमी अरबपति बनना चाहता है।

जब तक व्यक्ति के मन में किसी भी चीज को पाने की इच्छा, अभिलाषा या कामना है तब तक वह पूर्ण सुखी तथा शान्त मन वाला नहीं बन सकता।

सारी जिन्दगी मनुष्य इच्छा-तृष्णाओं के पीछे भटकता रहता है। कोई व्यक्ति धन को जोड़ने में लगा हुआ है तो कोई विभिन्न प्रकार की भौतिक वस्तुएँ जोड़ने में लगा हुआ है लेकिन ‘माया’ जोड़ने की अभिलाषा आदमी की कभी पूरी नहीं हो पाती।

जब मनुष्य के मन से चाहने की चिन्ता मिटे तभी वह पूर्ण सुखी हो सकता है।

कबीरदासजी कहते हैं

चाह गई चिन्ता मिटी, मनुवा बेपरवाह।

जिसको कछु न चाहिए, सोई साहंसाह।।

प्राचीन काल में गो, गज तथा वाजि आदि जीवों को धन के रूप में मात्र जाता था तथा इनका होना बड़ी शान की बात समझी जाती थी इसी बात के ध्यान में रखते हुए कवि ने कहा-

‘‘गोधन, गजधन, वाजिधन और रतनधन खान।।

जब आवे सन्तोष धन सब धन धूरि समान ॥

अर्थात् यद्यपि संसार में गाय, हाथी तथा घोड़े आदि जानवर धन के रूप में प्रसिद्ध हैं तथा इनके होने से तथा बहुमूल्य मणिमाणिक्य के होने से व्यक्ति धनवान समझा जाता है लेकिन जब आदमी के जीवन में सन्तोष आ जाता है। तो ये सभी धन धूल की तरह तुच्छ और नगण्य लगने लगते हैं।

आज के समय चारे आदि की समस्या होने के कारण गाय, हाथी तथा घोड़े को बहुत बड़े धन के रूप में नहीं देखा जाता और न ही इनका. होना बड़े शान की बात समझी जाती है। आजकल तो आदमी मोटरसाइकिले, कार, जीप, ए.सी. युक्त मकान, टी.वी., फ्रीज इत्यादि को ही शान की बात समझता है और इन्हीं चीजों को एकत्रित करने की फिक्र में लगा रहता है, झूठ सच बोलकर धन एकत्रित करता है।

वर्तमान में तो रुपया ही सबसे बड़ी चीज है। रुपए से संसार के सारे सुख साधन, उत्तम भोजन तथा मकान आदि खरीदे जा सकते हैं। लेकिन सन्तोष के बिना रुपया भी आदमी को सुख नहीं दे सकता।

सन्तोष वह मानसिक अवस्था है, जिसमें व्यक्ति प्राप्त होने वाली वस्तु को पर्याप्त समझता है और उससे अधिक की कामना या इच्छा नहीं करता। अप्राप्य वस्तु के लिए चिन्ता न करना और प्राप्त वस्तु के लिए सम रहना ही ‘सन्तोष कहलाता है।

रुपया पैसा अथवा धन से मनुष्य कभी भी तृप्त नहीं होता। मन की अतृप्ति के कारण मनुष्य की इन्द्रियाँ बेलगाम घोड़े की तरह भागती रहती हैं। फलस्वरूप मनुष्य के हृदय में अशान्ति और अन्तर्द्वन्द्व की उत्पत्ति होती है। जो हृदय अशान्त है उसको सुख भला कैसे मिल सकता है? जहाँ सुख नहीं, वहाँ मनुष्य का जीवन नरक की तरह है। जीवन का सच्चा सुख केवल सन्तोष से ही मिल सकता है।

जो धन मनुष्य के मन को सुखशान्ति न पहुँचा सके, उसके शरीर को नीरोग एवं स्वस्थ न बना सके -वह धन तुछ है।

सखी सूखी खाय के ठण्डा पानी पीव।

देख पराई चूपड़ी मत ललचाए जीव ॥

सन्तोष का सबसे बड़ा आदर्श है। इस तरह के सन्तोष वाला व्यक्ति हो जोवन में पूर्ण सुखी रह सकता है।

जिसके पास सन्तोष का धन है उसकी आँखों की ज्योति में चमक दी है-उत्तम स्वास्थ्य की लाली उसके गालों पर होती है, कमलपुष्प की तरह उसका शरीर खिला रहता है, चाँदनी जैसी मुस्कराहट उसके होठों पर खेलती रहती है। उसका मुस्तक दीप्तिवान होता है तथा उसके अंग अंग में चुस्ती-फुर्ती व स्फूर्ति बनी रहती

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