बढ़ती जनसंख्या और सिकुड़ते साधन
Badhti Jansankhya Aur Sikudte Sadhan
हमारे देश की जनसंख्या, सुरसा राक्षसी के मुँह की तरह, पिछले 50 वर्षों से अपना आकार फैलाती जा रही है। भारत सरकार साधनों का विकास करने में जुटी हुई है। सरकार देश की भलाई के लिए विदेशी पूँजी और तकनीकी का भी इस्तेमाल कर रही है लेकिन जैसा कि तुलसीदासजी ने रामचरित मानस में सुरसा राक्षसी के लिए लिखा है-
जस-जस सुरसा बदनु बढ़ावा।
तासु दून कवि रूप दिखावा।
सरकार जैसे-जैसे जीवन के साधनों का विकास करती जा रही है वैसे-वैसे बढ़ती हुई जनसंख्या उन साधनों को निगलने या समाप्त करने के लिए भी तैयार रहती है।
सरकार बढ़ती हुई जनसंख्या की समस्याओं को देखते हुए हर साल देश में विकास योजनाओं को लागू करती है लेकिन ये विकास योजनाएँ ऊँट के मुँह में जीरे की तरह भारत की अधिकांश जनसंख्या को ज्यादा लाभ नहीं दे पातीं।
बढ़ती हुई जनसंख्या को रोकने के लिए सरकार परिवार नियोजन के उपायों पर भी बहुत जोर दे रही है तथा हर साल लाखों-करोड़ों सरकारी रुपया परिवार नियोजन के नाम पर खत्म हो जाता है लेकिन देश की जनसंख्या दर फिर भी सीमित नहीं हो पा रही है।
इसका मुख्य कारण यह है कि देश की आम जनता के बीच अपने परिवार को सीमित रखने के प्रति जागृति कम है। भारत में एक से अधिक लड़के पैदा करना शान की बात समझी जाती है। इसे परिवार की वंशवृद्धि का साधन माना जाता है। पति-पत्नी को यदि कोई बच्चा नहीं है तो वे अपने जीवन को धिक्कारते हैं और जब सौभाग्य से एक कन्या पैदा हो जाती है तो उन्हें मानसिक सन्तुष्टि नहीं मिलती। वे एक पुत्र पाने के लिए तरसते हैं तथा भगवान से पुत्ररत्न प्राप्ति की दुआ माँगते हैं। यदि उनको पुनः एक बार और दूसरी बार कन्या पैदा हो जाती है तो वे पुत्र पाने के लिए भगवान को कोसने लगते हैं। इस प्रकार पुत्र प्राप्ति के चक्कर में एक से दो, दो से तीन, बच्चे पैदा करते रहते हैं। इस प्रकार केवल एक व्यक्ति ही नहीं अनेक शादीशुदा लोग भारतीय परिवारों में यही सोचते हैं और यही वृत्ति भारत में तेजी से जनसंख्या बढ़ने का मुख्य कारण भी है।
गरीब परिवारों में जनसंख्या तो परिवार की बढ़ जाती है लेकिन सबको ढंग त खाना, कपड़ा मिलना मुश्किल हो जाता है। हमारे देश के लिए दुर्भाग्य की सबसे तही बात यही है कि एक तो देश की जनसंख्या बढ़ रही है।
दूसरे जनसंख्या वृद्धि के अनुपात में सुखसाधन कम होते जा रहे हैं। आज से पचास वर्ष पहले हमारे देश में जितने वन-उपवन थे-उतने आज नहीं हैं। मानव ने अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए हरे-भरे पेड़-पौधों को काट डाला है, वन-उपवनों को उजाड़ डाला है। वन कट जाने से वन्य जीवों का जीवन भी कठिन और असम्भव-सा होने लगा है और कई वन्य जातियाँ इस देश से विलुप्त होती जा रही हैं।
किसी भी देश की बढ़ती हुई जनसंख्या राष्ट्र की विशाल जनशक्ति की सचक है। जनसंख्या जितनी अधिक होगी, राष्ट्र उतना ही श्रम की शक्ति से पूर्ण होगा। लेकिन देश में सिकुड़ते साधन जीवन-जीने की क्षमता को चुनौती देते हैं। ये जीवन-मूल्यों का गला दबाने की कोशिश करते हैं।
संसार में किसी प्रकार के खनिज और अखनिज पदार्थ असीमित नहीं हैं। प्रत्येक देश के पास खनिज और अखनिज पदार्थों के एक सीमित साधन हैं जो एक हद तक देश की जनसंख्या की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। लेकिन जब देश की जनसंख्या हद से ज्यादा बढ़ जाती है तो ये साधन सबको पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं हो पाते। फलस्वरूप राष्ट्र में सुख-साधनों की कमी आ जाती है। सामान्य नागरिकों को जीवन जीने के साधनों का अभाव-सा खलने लगता है।
निरन्तर बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण सबको पर्याप्त शुद्ध वायु, पौष्टिक भोजन तथा शुद्ध जल नहीं मिल पाता।
भारत में बढ़ती जनसंख्या एवं सिकुड़ते साधनों का दुष्परिणाम यह है कि आज भारत में गरीबी रेखा से नीचे जीने वालों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ रहा है। अनेक गरीब लोगों के पास दो समय का पर्याप्त भोजन नहीं है, सर्दी से बचने के लिए पर्याप्त कपड़े नहीं हैं तथा रहने के लिए छत का भी अभाव है।
साधनों और धन की कमी के कारण लोग चोरी, डकैती, छीना-झपटी, फूट आदि के जरिए धन इकट्ठा करने में लगे हुए हैं। देश में जीवन मूल्यों और नैतिकता का ह्रास हो रहा है और भ्रष्टाचार बढ़ रहा है।
जब तक देश में बढ़ती हुई जनसंख्या की गति को धीमा नहीं किया जाएगा और विकास साधनों का विस्तार नहीं किया जाएगा तब तक भारत भौतिक दृष्टि से सफल और सुखी नहीं हो सकता।