अखंड भारत और राजनीति
Akhand Bharat Aur Rajniti
भारत का लोकमानस सदा इसी गहरी आकांक्षा से ओत-प्रोत रहा है कि बँटवारे की अपनी ढपली अपना राग की इस घातक प्रवृत्ति को रोककर अखंडता की सृष्टि करनेवाला कोई महापुरुष जन्मे, कोई बल-प्रतापी सम्राट पैदा हो। विक्रमादित्य और अशोक-जैसे राजा इसी आकांक्षा की पूर्ति कर लोकप्रिय हुए। इस प्रकार राजनीति बराबर इस देश को बाँटती रही, इसके छोटे-छोटे टुकड़े करती रही और संस्कृति उन टुकड़ों के बीच माला के दानों में धागे की तरह समाकर समन्वय का काम करती रही। बिना संदेह ये छोटे-छोटे राज्यों के टुकड़ों बात-बेबात आपस में टकराते रहे और विदेशियों को आक्रमण का निमंत्रण देते रहे। चतुर चाणक्य ने कहा था कि पड़ोसी राज्य अकारण, यानी जन्मजात शत्रु होता है, उससे सदा सावधान रहना ही चाहिए। बात बड़े मार्के की थी, पर उसकी सच्चाई को हम अनुभव करें, तो देखेंगे कि भारत का अर्थ था दुश्मनों का देश, इसका दुश्मन वह, उसका दुश्मन यह- न इसे चैन, न उसे चैन। एक का दूसरे के द्वारा विध्वंस ही सबको राजनीति थी, मुख्य नीति थी। स्पष्ट है कि यह राजनीति जनता को सुख कहाँ दे सकती थी, देश का सबल निर्माण कहाँ कर सकती थी, भारत को विदेशियों के आक्रमण से और गुलामी से कहाँ बचा सकती थी? पुण्यात्मा संतों की जय कि उनके कारण विध्वंसों की इन अनगिनत होलियों के बीच भारत की एकता नहीं जली। यूरोप में धर्म एक, नस्ल एक, विचार एक, रहन-सहन एक, लिपि एक, केवल भाषा का भेद और यूरोप अनेक राज्यों में बँट गया, उसके टुकड़े हो गये, पर भारत में धर्म अनेक, भाषाएँ अनेक, रहन-सहन ही नहीं, भोजन पद्धतियाँ भी अनेक विभेद ही विभेद, फिर भी भारत एक होकर जीता रहा, उसमें एकता की आकांक्षा जीवित-जाग्रत रही, वह सदा चक्रवर्तित्व के लिए आकुल-उत्सुक रहा।